Monday, September 5, 2016

क्या स्वामी जी का आचरण उनके दर्शन के अनुकूल था?

स्वामी जी की मान्यताएं सही हैं या ग़लत? और वह ‘संसार को मुक्ति’ दिलाने के अपने उद्देश्य में सफल रहे या असफल? और यह कि
क्या वास्तव में उन्हें सत्य का बोध प्राप्त था? आदि बातें जानने के लिए स्वयं उनके आहवान पर उनके साहित्य का अध्ययन करना ज़रूरी है। सच्चाई जानने के लिए उनके जीवन को स्वयं उनकी ही मान्यताओं की कसौटी पर परख लेना काफी है क्योंकि सच्चा ज्ञानी अपने उपदेश पर आचरण करके समाज के सामने आदर्श भी उपस्थित करता है।
स्वामी दयानन्द जी कहते हैं कि ईश्वर क्षमा चाहने वाले भक्तों के पाप भी क्षमा नहीं करता क्योंकि अपराधी को क्षमा करना अपराध को बढ़ावा देना है।
‘क्या ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है ?’ इसके उत्तर में वह कहते हैं -
     ‘नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्‍ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत देना ही ईश्वर का काम है क्षमा करना नहीं।’   (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्‍ठ 127)
‘न्याय और दया का नाम मात्र ही भेद है क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से... क्योंकि जिसने जैसा जितना बुरा कर्म किया हो उसको उतना वैसा ही दण्ड देना चाहिये, उसी का नाम न्याय है। और जो अपराधी को दण्ड न दिया जाए तो दया का नाश हो जाए क्योंकि एक अपराधी डाकू को छोड़ देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुख देना है। जब एक के छोड़ने में सहस्त्रों मुनष्यों को दुख प्राप्त होता है, वह दया किस प्रकार हो सकती है?’ (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम0, पृष्‍ठ 118)
    अब स्वामी दयानन्द जी के उपरोक्त दर्शन के आधार पर स्वयं उनके आचरण को परख कर देखिये कि दया और न्याय का जो सिद्धान्त उन्होंने ईश्वर, राजा और धार्मिक जनों के लिए प्रस्तुत किया है, स्वयं उस पर कितना चलते थे?
    सबसे पहले अनूपशहर ( सम्वत् 1924) की वह घटना देखिए, जिसमें एक ब्राह्मण ने उन्हें पान में ज़हर खिला दिया था।  कर्तव्यनिष्‍ठ तहसीलदार सय्यद मुहम्मद ने अपराधी को गिरफ्तार करके स्वामी जी के आगे ला खड़ा किया तो वह बोले -
‘तहसीलदार साहब, मैं आपके कर्तव्यनिष्ठा से अत्यन्त प्रभावित हूँ। लेकिन आप इसे छोड़ दें। कारण, मैं संसार को कैद कराने नहीं, अपितु मुक्त कराने आया हूँ। यदि दुष्‍ट अपनी दुष्‍टता नहीं छोड़ता, तो हम सन्यासी अपनी उदारता कैसे छोड़ सकते हैं।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द, पृष्‍ठ 49)
(3) इस प्रकार अपराधियों को क्षमा करना और दण्ड से छुड़वाना क्या स्वयं अपनी दार्शनिक मान्यता का खण्डन करना नहीं है?
(4) क्या स्वामी दयानन्द जी ने न्याय और दया को नष्‍ट नहीं कर दिया?
(5) दयानन्द जी ने अपनी दार्शनिक मान्यता के विपरीत जाकर अपने हत्या का प्रयास करने वाले को क्षमा क्यों कर दिया?
(6) क्या इस पाप कर्म की वृद्धि का बोझ स्वामी जी पर नहीं जाएगा?
(7) क्या एक दुष्‍ट हत्यारे को समाज में खुला छोड़कर उन्होंने एक अपराधी के उत्साह को नहीं बढ़ाया और पूरे समाज को खतरे में नहीं डाला?
स्वामी दयानन्द जी द्वारा अपने अपराधी को क्षमा करने की यह अकेली घटना नहीं है बल्कि कई मौक़ों पर उन्होंने अपने सताने वालों और हत्या का प्रयास करने वालों को क्षमा किया है।
‘फ़र्रूख़ाबाद में आर्यसमाज के एक सभासद की कुछ दुष्‍टों ने पिटाई कर दी। लोगों ने स्कॉट महोदय से उसे दण्ड दिलाया । पर स्वामी जी को रुचिकर न लगा। उन्होंने स्कॉट महोदय तथा सभासदों से कहा - चोट पहुंचाने वाले को इस तरह दण्डित करना आपकी मर्यादा के खि़लाफ है। महात्मा किसी को पीड़ा नहीं देते, अपितु दूसरों की पीड़ा हरते हैं।’ (युगप्रवर्तक0, पृष्‍ठ 130)
(8) क्या स्कॉट महोदय व तहसीलदार आदि दुष्‍टों को दण्ड देने वालों से दुष्‍टों को छोड़ने की सिफारिश करना उनको राजधर्म के पालन करने से रोकना नहीं है। जिसकी वजह से दुष्‍टों का उत्साह बढ़ा होगा और वे अधिक पाप करने में प्रवृत्त हुए होंगे?
(9) क्या अपने आचरण से उन्होंने अपने विचारों को निरर्थक और महत्वहीन सिद्ध नहीं कर दिया?
...एक और घटना देखिए, जिसे सबसे ज़्यादा प्रचारित किया जाता है। इसमें उनके धोड़ मिश्र रसोईये के द्वारा उन्हें विड्ढ देना बताया जाता है-
‘स्वामी जी को पता लग गया कि जगन्नाथ ने यह कार्य किया है। उन्होंने उससे कहा-‘जगन्नाथ, तुमने मुझे विष देकर अच्छा नहीं किया। मेरा वेदभाष्‍य कार्य अधूरा रह गया। संसार के हित को तुमने भारी हानि पहुँचाई है। हो सकता है, विधाता के विधान में यही हो । ये रूपए रख लो। तुम्हारे काम आएंगे। यहाँ से नेपाल चले जाओ क्योंकि यहाँ तुम पकड़े जाओगे। मेरे भक्त तुम्हें छोड़ेंगे नहीं।’ (युगप्रवर्तक0, पृष्‍ठ 151)
यदि इस घटना को सच माना जाए तो स्वामी दयानन्द जी की विश्वसनीयता ख़त्म हो जाती है।
(10) संसार के हित को भारी हानि पहुंचाने वाले दुष्‍ट हत्यारे को क्षमा करने का अधिकार तो स्वयं संसार को भी नहीं है बल्कि यह अधिकार तो स्वामी जी ईश्वर के लिए भी स्वीकार नहीं करते। फिर उन्होंने स्वयं किस अधिकार से एक दुष्‍ट हत्यारे को क्षमा करके रूपये देकर उसे भाग जाने का मशविरा दिया?
(11) हो सकता है कि इसी प्रकार के आचरण को देखकर जगन्नाथ पाचक ने सोचा हो कि अव्वल तो मैं पकड़ा नहीं जाऊंगा और यदि पकड़ा भी गया तो कौन सा स्वामी जी दण्ड दिलाते हैं, ‘हाथ जोड़ने आदि चेष्‍टा’ करके बच जाऊंगा और स्वामी जी की क्षमा करने की इसी आदत ने उस हत्यारे का उत्साह बढ़ाया हो?



-- --Book Download Link--
http://www.mediafire.com/download/ydp77xzqb10chyd/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition.pdf --
डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --
https://archive.org/stream/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-published-book/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition#page/n0/mode/2up
--
पुस्तक युनिकोड में चार पार्ट में इधर भी है
 http://108sawal.blogspot.in/2015/04/swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya.html 

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