Thursday, September 15, 2016

दुःख का कारण हमेशा पापाचरण नहीं होता

हक़ीक़त यह है कि दुःख का कारण हमेशा पापाचरण नहीं होता। सुख-दुख का मूल पिछले जन्म का आचरण मानना ग़लत है। योग से रोग ठीक होने का दावा करने वाले बाबा रामदेव के गुरू जी भी काफ़ी वृद्ध हो गए थे। लापता होने से पहले वह भी काफ़ी समय से बीमार चल रहे थे। जब पिछले दिनों स्वयं बाबा रामदेव जी ने आमरण अनशन किया तो चंद ही दिनों में उनकी हालत बिगड़ गई और उनकी जान जाने की नौबत तक आ गई। इस घोर कष्ट के पीछे उनका कोई पूर्व जन्म का पापाचरण नहीं था बल्कि खाना-पीना छोड़ देना था। उचित इलाज के साथ जैसे ही उन्होंने खाना-पीना ्युरू किया। उनका कष्ट दूर हो गया।
    यह तो सामने की बात थी लेकिन कुछ कष्टों का कारण ज़रा दूर होता है। कई बार कष्टों का कारण वंशानुगत   भी होता है।
स्वामी विवेकानन्द के पिता जी को मधुमेह ;क्पंइमजमेद्ध की बीमारी थी। स्वामी जी भी इस बीमारी के शिकार हो गए। उन्हें मधुमेह के अलावा लिवर और गुर्दे की बीमारियों, मलेरिया, माइग्रेन, अनिद्रा और दिल की बीमारियों सहित 31 बीमारियों से जूझना पड़ा था। जिनका कारण मशहूर बांग्ला लेखक ्यंकर ने अपनी पुस्तक ‘द मॉन्क ऐज़ मैन’ में बताया है। उन्होंने लिखा है कि स्वामी विवेकानन्द सन 1887 ई. में अधिक तनाव और भोजन की कमी के कारण काफ़ी बीमार हो गए थे।
(आधार ः हिन्दी दैनिक द सी एक्सप्रेस दिनांक 7 जनवरी 2013 पृ. 2 की रिपोर्ट)

    व्यक्ति जिस समाज में रहता है। उस समाज का सामूहिक आचरण भी व्यक्ति के सुख-दुख का कारण बनता है और विगत समाज के लोग जो कुछ अच्छा या बुरा करके गए हैं, उसका परिणाम भी आज मौजूद लोगों को भोगना पड़ता है। द्वितीय विश्वयुद्ध जिन जापानियों ने लड़ा था। वे आज मौजूद नहीं हैं लेकिन उन पर जो प्रतिबन्ध लगाए गए थे वे आज की जापानी नस्ल पर भी लगे हुए हैं। नागासाक़ी और हिरोशिमा में आज भी विकलांग बच्चे पैदा होते हैं।
    एक व्यक्ति एक विशाल समाज का अंग है। उस समाज का एक अतीत भी है। उस अतीत के अच्छे बुरे कर्मों का अच्छा या बुरा असर आज भी हम पर पड़ रहा है। कई बार परिवर्तन भी कष्ट का कारण बनता है।

विशेषकर तब, जबकि समाज के सदस्यों में मूर्तिपूजा, नशा, जुआ, दहेज और अन्याय का चलन आम हो जाए और उन्हें परिवर्तन के लिए कहा जाए। यदि वे  अपनी परम्पराओं में परिवर्तन करते हैं तो उन्हें अवश्य ही कई तरह के कष्ट का सामना करना पड़ेगा और यदि वे नहीं बदलते तो वे उपदेशक को अवश्य कष्ट देंगे। इस रहस्य को जान लिया जाता तो अपने कष्टों के लिए अपने किसी अज्ञात पूर्वजन्म को मानने की ज़रूरत ही न पड़ती। जिसका ज़िक्र वेदों में कहीं भी नहीं है।


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डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --पुस्तक में108 प्रश्न नंबर ब्रेकिट में दिये गए हैं
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Friday, September 9, 2016

क्या दुखी मनुष्य पिछले जन्म का पापी है?

समाज में आवागमन की ग़लत धारणा आम हो चुकी है। इस कारण लोग दुख उठाने वाले को कितनी बुरी नज़रों से देखते हैं बल्कि अच्छे आदमी ख़ुद अपनी नज़र में भी गिर जाते हैं और अपनी नज़र से गिरे हुए को कौन उठा सकता है ?
    हक़ीक़त यह है कि दुनिया ईश्वर की पाठशाला है। जहां वह मनुष्यों का शिक्षण और प्रशिक्षण विभिन्न माध्यमों से स्वयं कर रहा है। वह मनुष्यों का परीक्षण भी करता है और उन्हें दुनिया में सज़ा और ईनाम भी देता है। परलोक में वह अपने न्याय को पूर्ण करेगा।
    शिक्षण-प्रशिक्षण और परीक्षण में विद्यार्थियों को कष्ट होता ही है। यह स्वाभाविक है। जो विद्यार्थी अच्छे होते हैं। वे नियमों का पालन करके शिक्षा ग्रहण करते हैं और कठिन परीक्षा देते हैं और सफल होते हैं, उन्हें भी कष्ट होता है और जो नियमों का उल्लंघन करते हैं और परीक्षा में फ़ेल हो जाते हैं, उन बुरे विद्यार्थियों को भी कष्ट होता है। दुख और कष्ट सबको होता है लेकिन दोनों के कष्ट का कारण अलग अलग होता है। दुनिया में भी अच्छे और बुरे हरेक आदमी को कष्ट होता है लेकिन आवागमन के कारण अच्छे आदमी को कष्ट उठाता देखकर उसे भी बुरा समझ लिया जाता है।
    दुनिया में एक अच्छा आदमी बुरे लोगों के खि़लाफ़ संघर्ष करता है। बुरे लोग उसे जीवन भर कष्ट देते हैं और फिर उसकी हत्या कर देते हैं या उसे धोखे से ज़हर खिला देते हैं। आवागमन को मानने वाले उसके बारे में यह सोचते हैं कि यह बहुत बुरी मौत मरा है। इसके पूर्व जन्म के पापों का फल ही अब इसके सामने आया है। ज़रूर इसने पिछले जन्म में इन लोगों की हत्या की होगी, जिन्होंने इस जन्म में इसे क़त्ल किया है। लोगों के सामने यह सुधारक होने का ढोंग कर रहा था लेकिन ईश्वर ने न्याय करके इसकी असलियत सबके सामने खोल दी।
(57) क्या लोगों का ऐसा सोचना सही कहलाएगा ?
    स्वामी दयानन्द जी की तरह आदिशंकराचार्य को भी ज़हर देकर मार डालना बताया जाता है। दोनों वैदिक आचार्य आवागमन के प्रचारक थे। बडे़ भयानक कष्ट उठाने के बाद उनके प्राण निकले। स्वामी जी ने कहा है-
    ‘क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है।’ (सत्यार्थप्रकाश, नवम., पृ.165)
(58) ज़रा सोचिए कि अगर दुख का कारण पापाचरण को माना जाए तो स्वामी ने जो दुख भोगे उनका कारण क्या माना जाएगा?

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आवागमन कैसे संभव है? metemspychosis

इन्सान के लिए यह जानना बेहद ज़रूरी है कि मरने के बाद जीवात्मा के साथ क्या होता है? यही बात इन्सान को बुरे कामों से बचकर नेक काम करने की प्रेरणा देती है। प्रत्येक को अपने शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगना है लेकिन किस दशा में? 
वैदिक धर्म में स्वर्ग-नर्क की मान्यता पाई जाती है। बाद में आवगमन की कल्पना प्रचलित की गई। स्वामी जी ने स्वर्ग-नर्क को अलंकार बताया और आवगमन की कल्पना का प्रचार किया। उन्होंने बताया कि मोक्ष प्राप्त आत्मा भी एक निश्चित अवधि तक मुक्ति-सुख भोगने के बाद जन्म लेती है और पापी मनुष्यों की आत्माएं भी कर्मानुसार अलग-अलग योनियों में जन्म लेती हैं।


    आवागमन की कल्पना सिर्फ इस अटकल पर खड़ी है कि सब बच्चे बचपन में एक जैसे नहीं होते। कोई राजसी शान से पलता है और कोई ग़रीबी, भूख और बीमारी का शिकार हो जाता है। ऐसा क्यों होता है? क्या ईश्वर अन्यायी है, जो बिना कारण ही किसी को आराम और किसी को कष्‍ट देता है? क्योंकि ईश्वर न्यायकारी है इसलिए इनके हालात में अन्तर का कारण भी इनके ही कर्मों को होना चाहिए और क्योंकि इनके वर्तमान जन्म में ऐसे कर्म दिखाई नहीं देते तो ज़रुर इस जन्म से पहले कोई जन्म रहा होगा। यह सिर्फ़ एक 

अटकल है हक़ीक़त नहीं। 
एक मनुष्य जब कोई पाप या पुण्य का कर्म करता है तो उसके हरेक कर्म का प्रभाव अलग-अलग पड़ता है और उसके कर्म से प्रभावित होकर दूसरे बहुत से लोग भी पाप पुण्य करते हैं और फिर उनका प्रभाव भी दूसरों पर और भविष्‍य की नस्लों पर पड़ता है। यह सिलसिला प्रलय तक जारी रहेगा। इसलिये प्रलय से पहले किसी मनुष्‍य के कर्म के पूरे प्रभाव का आकलन संभव नहीं है। लोगों को प्रलय से पहले उनके कर्मों का बदला देना सम्भव नहीं है और यदि उन्हें बदला दिया जाता है तो किसी एक के साथ भी न्याय न हो पाएगा।

फिर भी अगर मान लिया जाए कि एक पापी मनुष्‍य को उसके पापों की सज़ा भुगतने के लिए पशु-पक्षी आदि बना दिया जाता है तो जब उसकी सज़ा पूरी हो जायेगी तो उसे किस योनि में जन्म दिया जाएगा? क्योंकि मनुष्‍य योनि तो बड़े पुण्य के फलस्वरूप मिलती है। इसलिए मनुष्‍य योनि में जन्म संभव नहीं है और पशु-पक्षी आदि की योनियों में उसे भेजना भी न्यायोचित नहीं है क्योंकि वह अपने पापकर्मों की पूरी सज़ा भुगत चुका है।

(54) मोक्ष प्राप्त आत्मा के जन्म के विष‍य में भी यही प्रश्न उठता है। एक निश्चित अवधि तक मुक्ति सुख भोगने के बाद मोक्ष प्राप्त आत्मा जन्म लेती है, लेकिन प्रश्न यह है कि किस योनि में लेती है?

(55) पाप उसने किया नहीं था और पुण्य का फल भी उसके पास अब शेष नहीं था। नियमानुसार ईश्वर उसे न तो पशु-पक्षी बना सकता है और न ही मनुष्य। क्या न्यायकारी परमेश्वर जीव को बिना किसी कर्म के पशु-पक्षी या मनुष्‍य योनि में जन्म दे सकता है?

(56) यदि यह मान भी लिया जाये कि दोनों को नई शुरूआत मनुष्‍य योनि से कराई जाएगी तो फिर बचपन में जब वे भूख, प्यास और मौसम आदि के स्वाभाविक कष्ट झेलेंगे तो इन कष्टों के पीछे क्या कारण माना जाएगा?, क्योंकि पाप तो दोनों के ही शून्य हैं।
इस तरह आवागमन की कल्पना से जिस समस्या का समाधान निकालने की कोशिश की गई। वह समस्या तो ज्यों की त्यों रही और वास्तव में मरने के बाद पाप पुण्य का फल जिस तरीक़े से मिलता है, उसे न जानने के कारण जीव को बहुत सा कष्ट उठाना पड़ता है।


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नपुंसक क्यों पैदा होते हैं?

(53) किस कर्म के फल में नपुंसक लोग पैदा होते हैं?,  ( पी डी एफ mediafire और  archive  से  प्राप्त कर सकते हैं)
इस सवाल का जवाब स्वामी जी भी न दे पाए। नपुंसक गर्भ का कारण बताते हुए उन्हें कर्मफल की अवधारणा से हटना पड़ा। वह कहते हैं-
    ‘जो स्त्री के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो स्त्री और पुरूष के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो  पुरूष के शरीर में प्रवेश करता है। और नपुंसक गर्भ की स्थिति समय स्त्री पुरूष के शरीर में सम्बन्ध करके रज वीर्य के बराबर होने से होता है।’ (सत्यार्थ.,पृ.171)
    स्वामी जी ने औरत और मर्द का शरीर मिलने के लिए तो जीव के कर्म को ज़िम्मेदार माना है लेकिन नपुंसक शरीर मिलने के लिए जीव के कर्म के बजाय पति-पत्नी के रज-वीर्य को ज़िम्मेदार माना है। ऐसा मानना कर्मफल की अवधारणा के विपरीत तो है ही, जीव विज्ञान के प्रमाणित तथ्य के विपरीत भी है।
स्वामी जी ने यह भी नहीं बताया है कि किन कर्मों को करने से नर शरीर और किन कामों को करने से नारी शरीर मिलता है। ताकि अगर किसी को वह शरीर लेकर पैदा होना हो तो वह उस तरह के काम कर सके। वैसे आज इसकी ज़रूरत नहीं बची है कि मनोवाँछित लिंग पाने के लिए लोग अगले जन्म का इन्तेज़ार करें।
स्वामी जी के ज़माने के मुक़ाबले आज साइंस और टेक्नोलॉजी इस मक़ाम पर आ गई है कि औरतें और मर्द अपना लिंग अपनी मर्ज़ी के अनुसार बदल रहे हैं। माइकल जैक्सन ने तो अपना लिंग दो बार बदला था। आज बायो-टेक्नोलॉजी के ज़रिए गर्भ में ही बच्चे का लिंग, रूप-रंग और क़द वग़ैरह निश्चित करना संभव है। यह सब पूर्वजन्म के कर्मफल के विचार को निरर्थक सिद्ध करने के लिए काफ़ी है।

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Wednesday, September 7, 2016

आवागमन का त्याग ज़रूरी है देश की सीमाओं की रक्षा के लिए


स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.174 पर बताया है कि जो अत्यन्त रजोगुणी कर्म करते हैं वे मरने के बाद शस्त्रधारी भृत्य अर्थात सैनिक बनकर पैदा होते हैं। यह एक ग़लत बात है। इस तरह की बातें करना देश की सीमाओं को ख़तरे में डालना है। विदेशी हमलावरों से हारने का एक कारण ऐसी मान्यताएं भी थीं।

किसी का सैनिक बनना उसके  पूर्वजन्म के कर्म का फल नहीं होता। हरेक राज्य अपनी अपनी सीमा के क्षेत्रफल और सेना पर ख़र्च करने की क्षमता के अनुसार ही सैनिक तैयार करता है। जिस राज्य को जितने सैनिक चाहिए होते हैं। वह उनकी भर्ती करके उन्हें प्रशिक्षण देता है और वे सैनिक बन जाते हैं। युद्धकाल में ज़्यादा सैनिकों की ज़रूरत पड़ती है तो राज्य ज़्यादा लोगों को भर्ती कर लेता है। जिन दांभिक पुरूषों को स्वामी जी ने तमोगुणी (सत्यार्थ.,पृ.174) माना है, वे भी सेना में भर्ती होकर लड़ते हैं। पायलट और बिजली के जानकार भी मैदान में लड़ते हैं। जिन्हें स्वामी जी ने सत्वगुणी माना है। सत, रज, तम तीनों गुणों के मालिक सेना में इकठ्ठे मिलेंगे और सेना से रिटायर होकर वे सब फिर अलग अलग काम करते हैं। कोई खेती करता है, कोई व्यापार करता है, कोई अध्यापक बन जाता है और कोई डाकू-लुटेरा भी बन जाता है।

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आवागमनः समाज का पतन

हमें जानना चाहिए कि आज वेदपाठ करना पिछले जन्म के कर्मों का फल नहीं है। स्वयं स्वामी जी ने वेद का प्रचार करने के लिए जगह जगह पाठशालाएं खोलीं और आर्य समाज मन्दिर बनवाए। इससे वेदपाठ करने वालों की संख्या में बढ़ोतरी भी हुई। अगर वेदपाठी होना पिछले जन्म के कर्मों का फल होता तो स्वामी जी के प्रयास से वेदपाठियों की संख्या न बढ़ती।
    यही बात बिजली और हवाई जहाज़ बनाने वालों की है। सत्वगुण के कर्म करने से यह योग्यता पैदा हुआ करती तो आज दुनिया में आर्य समाजी सबसे ज़्यादा बिजली और हवाई जहाज़ बना रहे होते। हक़ीक़त इसके खि़लाफ़ है। बिजली और हवाई जहाज़ का सबसे ज़्यादा प्रोडक्शन वे कर रहे हैं जो स्वामी जी के अनुसार तमोगुणी हैं।
    सवारी और युद्ध के विमान आज भी भारत में नहीं बनते। भारतीय इन्हें उन विदेशियों से ख़रीदते हैं जो आवागमन में विश्वास नहीं रखते। योग्यता और कला कौशल का गुण इसी जन्म के अभ्यास से विकसित होता है। इसे पिछले जन्म के कर्म का फल मानना लोगों को ग़लत जानकारी परोसना है। जिसके कारण समाज के लोग आवश्यक पुरूषार्थ नहीं करते और वे दूसरों से पिछड़ कर उनके अधीन हो जाते हैं। ग़लत विचारों को त्यागे बिना राजनैतिक प्रभुत्व पाना और वैज्ञानिक उन्नति करना संभव नहीं है।


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वेदपाठी सन्यासी इन्जीनियर से नीचे और दैत्य के बराबर कैसे?


‘तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गुणाः। नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्विकी गतिः।। (सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.173)
जो तपस्वी, यति, संन्यासी, वेदपाठी, विमान के चलाने वाले, ज्योतिड्ढी और दैत्य अर्थात् देहपोड्ढक मनुष्य होते हैं उनको प्रथम सत्वगुण के कर्म का फल जानो।
(48) वेदपाठी, सन्यासी और तपस्वी को हवाई जहाज़ के पायलट और दैत्य के साथ एक ही श्रेणी में रखना कैसे न्याय हो सकता है?
(49) क्या तपस्वी, यति, सन्यासी और वेदपाठी को पायलट और दैत्य के समकक्ष मानना उनका पदावनति और अपमान नहीं है?
(50) प्रथम सत्वगुण के कर्म करने के बाद भी आदमी मरने के बाद दैत्य बनकर पैदा हुआ तो उसे क्या फ़ायदा हुआ?
    सत्वगुणी कर्म करके दैत्य बनने वाले से अच्छे तो वे अत्यन्त तमोगुणी व्यक्ति रहे जो किसी की हत्या करके या चोरी और व्यभिचार करके पीपल, तुलसी आदि वृक्ष या गाय आदि पशु बन गये और आदर पाते रहे।
प्रथम सत्वगुण से ऊँचा दर्जा मध्यम सत्वगुण का है। मनुस्मृति के अनुसार मध्यम सत्वगुण के कर्म करने वाला विद्युत विद्या का जानकार अर्थात इलैक्ट्रिकल इन्जीनियर बनकर पैदा होता है। इससे ऊँचा दर्जा उत्तम सत्वगुण के कर्म करने वालों को मिलता है। उन्हें विमानादि यानों को बनाने वाले का जन्म मिलता है। (देखिए सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.172)
यहाँ भी तपस्वी, यति, सन्यासी और वेदपाठी हवाई जहाज़ बनाने वाले इन्जीनियर से दो दर्जे नीचे रह गए। इनके बराबर केवल ब्रह्मा जैसे सब वेदों के वेत्ता को रखा गया है। हवाई जहाज़ बनाने वाले इन्जीनियर को तो सब वेदों के ज्ञानी ब्रह्मा जी जैसे विद्वान के बराबर रख दिया और वेदपाठी, सन्यासी, यति और तपस्वियों को उससे दो दर्जे नीचे रखा। उन्हें बिजली मैकेनिक या इन्जीनियर से भी नीचे रखा गया। इससे भी बढ़कर यह कि उन्हें पायलट और दैत्यों की श्रेणी में रख दिया गया।
(51) आवागमन को मानने वाले वेदपाठी सन्यासियों ने जीवन भर की तपस्या के बाद पाया भी तो क्या, एक दैत्य के बराबर दर्जा पाया? 
(52) चोरी, व्यभिचार और हत्या करने वाले पेड़ बन गए तो उनका क्या बिगड़ गया? वे तो बाल-बच्चों को पालने और ब्याहने की चिंता से और मुक्त हो गए। आवागमन की मान्यता से पापियों को फ़ायदा और सत्कर्मियों को नुक्सान होता हुआ साफ़ दिख रहा है। वे पीपल, बरगद और तुलसी आदि वृक्ष बन गए तो कुछ जगहों पर लोग उनकी पूजा करते हुए, उन्हें सम्मान देते हुए भी मिल जाएंगे। 




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शाकाहार श्रेष्ठ क्यों माना जाए?

आवागमन की मान्यता शाकाहार के श्रेष्ठ और सात्विक प्रकृति का होने की भी जड़ काट देती है।
‘(प्रश्न) मनुष्य और पश्वादि के शरीर में जीव एक सा है वा भिन्न-भिन्न जाति के? 
    (उत्तर) जीव एक से हैं परन्तु पाप पुण्य के योग से मलिन और पवित्र होते हैं। (सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.170)
    ‘स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः। पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।।   
जो अत्यन्त तमोगुणी हैं वे स्थावर, वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं। (मनुस्मृति का श्लोक, सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.174)
‘शरीरजैः कर्मदोड्ढैर्याति स्थावरां नरः।
जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है उसको वृक्षादि स्थावर का जन्म... (मनुस्मृति का श्लोक, सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.172)
स्वामी जी के मतानुसार मनुष्य, पशु और पेड़-पौधों में एक ही जीव अपने पाप-पुण्य के कारण जन्म लेता रहता है। जो मनुष्य तमोगुणी होते हैं वे वनस्पति (सब्ज़ी), मछली और हिरन आदि बनकर पैदा होते हैं। जो लोग चोरी, व्यभिचार और हत्या जैसे जघन्य पाप करते हैं। वे आलू-गोभी बन जाते हैं। आलू, टमाटर, केले और नारियल आदि की यह देह मनुष्यों को उनके पाप की मलिनता के कारण प्राप्त होती है। चोरी, व्यभिचार और हत्या जैसे मलिन कर्मों के परिणामस्वरूप उत्पन्न देह को खाने के बाद वह खाने वाले के ्यरीर का अंग बनेगी और उसे भी मलिन बना देगी। रोज़ रोज़ इनका खाना मलिनता को बढ़ाता रहेगा और वे खाने वाले के मन में भी चोरी, व्यभिचार और हत्या की भावना जगा सकती हैं। कहावत ‘जैसा खाय अन्न वैसा हो जाय मन’ मशहूर ही है।
(45) सवाल यह उठता है कि किसी तमोगुणी जीव को आलू, गोभी, टमाटर और केले आदि की जो देह उसके पाप की मलिनता के कारण मिली है। उसे खाकर मनुष्य की तामसिक प्रवृत्ति पुष्ट होना तो समझ में आता है लेकिन सात्विक प्रवृत्ति को कैसे बल मिल सकता है?
(46) मनुस्मृति ने लौकी, कद्दू, मछली और हिरन, सबको एक ही श्रेणी ‘अत्यन्त तमोगुणी’ में रख दिया है। तब एक ही श्रेणी के एक जीव सब्ज़ी को खाकर उसे खाने वाले ख़ुद को पवित्र और श्रेष्ठ आहार ग्रहण करने वाला क्यों समझते हैं?
मछली और हिरन को मारने में उन्हें कष्ट होने की बात कही जा सकती है लेकिन वह तो पेड़ पौधों को भी होता है। मछली और हिरन आदि के कष्ट को तो कम किया जा सकता है लेकिन गाजर और चुक़न्दर के कष्ट को कम करने का कोई उपाय भी नहीं है।
(47) पशु-पक्षी को जब खाया जाता है तब उनमें प्राण और चेतना नहीं होती लेकिन जब आदमी गाजर खा रहा होता है तब वे जीवित होती हैं। गाजर और चुक़न्दर का रस वास्तव में उनके शरीर का रक्त है, जिसे शाकाहारी बड़े शौक़ से पीते हैं और ऐसा करके भी वे ख़ुद को पवित्र और श्रेष्ठ क्यों समझते रहते हैं?


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सब्ज़ियां खाने से जीव को पीड़ा नहीं होती?

इतिहास की तरह जीव विज्ञान के विषय में स्वामी जी की मान्यताएं ठीक नहीं हैं। वह कहते हैं-
‘...हरित ‘शाक के खाने में जीव का मारना उनको पीड़ा पहुंचनी क्योंकर मानते हो? भला जब तुमको पीड़ा प्राप्त होती प्रत्यक्ष नहीं दिखती और जो दिखती तो हमको दिखलाओ।’ ( देखें सत्यार्थप्रकाश, द्वादशमसमुल्लास, पृष्‍ठ 369)
(42) आज पहली क्लास का बच्चा भी जानता है कि पेड़-पौधे जीवित वस्तुओं ;स्पअपदह जीपदहेद्ध में आते हैं। सब्ज़ी खाने से उन पर निवास करने वाले जीव भी मरते हैं। यह एक सच्चाई है। खाने के लिए गाजर-मूली को ज़मीन से खोद कर निकाला जाता है। तब वे भी मर जाती हैं और उन्हें पीड़ा भी होती है। इस वैज्ञानिक सत्य को झुठलाना ज्ञान कहा जायेगा अथवा अज्ञान?
दूसरों पर ऐतराज़ करने की जल्दी में स्वामी जी अपनी मान्यता भी भूल गए कि
‘स्वामी जी ने मनुष्य, पशु और वनस्पति आदि में जीव एक ही माना है।’ ( देखें सत्यार्थप्रकाश, नवम., पृ.170)
यह बात मान ली जाए तो मूली काटना भी आदमी की गर्दन काटने के बराबर का ही जुर्म ठहरता है और दोनों कामों पर एक ही धारा लगनी चाहिए और एक ही सज़ा मिलनी चाहिए। पेड़-पौधों पर अनगिनत सूक्ष्म जीवाणु भी वास करते हैं। सब्ज़ियां खाने से वे भी मरते हैं। मक्खी और मच्छर के क़त्ल पर भी वही सज़ा मिलने लगे जो कि आदमी को क़त्ल करने पर मिलती है तो आर्य समाजी भाई स्वयं ही कहने लगेंगे कि आवागमन नहीं होता।
(43) अगर मनुष्य, पशु और सब्ज़ी में जीव एक ही है तो फिर उन सबके जीवन का अंत करना बराबर का अपराध क्यों नहीं माना जाता?
(44) क्या ऐसा करके मनुष्य समाज एक मिनट के लिए भी ज़िन्दा रह सकता है?
आवागमन की मान्यता के अनुसार जो सब्ज़ियाँ और छोटे बड़े जीव अब नज़र आ रहे हैं, ये सब पहले कभी मनुष्य हुआ करते थे। वे मनुष्य ही मर कर अपने पाप भुगतने के लिए इन योनियों में पैदा हो गए हैं। केवल रूप रंग बदला है, इनमें आत्मा वही माननी पड़ेगी। ऐसे में यह डर बना रहता है कि जिस आलू को हम छील रहे हैं, कहीं यह हमारे माता-पिता ही न हों?
    हमारे माता पिता न भी हों तब भी वे किसी न किसी मनुष्य के माता पिता या बच्चे तो हैं ही, यह निश्चित है। आवागमन को माना जाए तो शाकाहारी भी आदमख़ोर ठहरते हैं। इस अपराध बोध से आदमी तभी बच सकता है, जबकि वह आवागमन को असत्य मान ले।

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राजाओं के इतिहास की जानकारी भी ग़लत

स्वामी जी को ऋषियों के प्राचीन इतिहास की तो क्या आर्य राजाओं के नवीन इतिहास की भी सही जानकारी नहीं थी। उन्होंने सुल्तान शहाबुद्दीन ग़ौरी का राजा यशपाल से लड़कर दिल्ली पर राज्य करना बताया है और पृथ्वीराज चैहान के राज्य को इस युद्ध से 74 वर्ष  पहले ही समाप्त दिखाया है। देखिए उनकी बनाई तालिका और उनकी टिप्पणी-
आर्य राजा    वर्ष     मास    दिन      
1 पृथिवीराज    12    -2    -19      
2 अभयपाल    14    -5    -17      
3 दुर्जनपाल          -11    -4    -14      
4 उदयपाल          -11    -7    -3      
5 यशपाल          -36    -4    -27     
    ‘राजा यशपाल के ऊपर सुल्तान शाहबुद्दीन गौरी गढ़ गजनी से चढ़ाई करके आया और राजा यशपाल को प्रयाग के किले में संवत् 1249 साल में पकड़ कर कैद किया। पश्चात् ‘इन्द्रप्रस्थ’ अर्थात दिल्ली का राज्य आप (सुल्तान शाहबुद्दीन) करने लगा।’ (देखें सत्यार्थप्रकाश, एकादशमसमुल्लास, पृ.274)
(41) क्या स्वामी जी द्वारा दी गई इस जानकारी को सही माना जा सकता है?
    हक़ीक़त यह है कि शाहबुद्दीन ग़ौरी 1149 ई. में पैदा हुआ और 1205 ई. में उसकी मृत्यु हुई। पृथ्वीराज चैहान 1149 ई.-1192 ई. में तराइन की दूसरी जंग में शाहबुद्दीन ग़ौरी से हार कर क़ैद हुआ और 1192 ई. में क़त्ल किया गया।


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ऋषियों के इतिहास की जानकारी आवश्यक है

सच्चा वेदार्थ जानने के लिए वेदमंत्रों की रचना करने वाले ‘कवि’ ऋषियों के इतिहास की जानकारी आवश्यक है। आज भी किसी कविता का सही अर्थ जानने के लिए उसके रचने वाले कवि के जीवन की घटनाओं के बारे में जानना ज़रूरी माना जाता है। कवि जिन घटनाओं को देखता है या जो अनुभूत करता है, अपने काव्य में उन्हीं का वर्णन करता है। अमीर ख़ुसरो, अल्लामा इक़बाल और रविन्द्र नाथ टैगोर के जीवन की घटनाओं को जाने बिना उनके काव्य का अर्थ किया जाएगा तो बहुत से स्थानों पर अर्थ का अनर्थ होना निश्चित है। वेदमंत्रों में विश्वामित्र, वसिष्ठ, घोड्ढा काक्षीवती, वभ्र, दुवस्यु और यम-यमी आदि जिन कवियों के नाम आए हैं। उनके जीवन का इतिहास जाने बिना उनके काव्य का सही अर्थ जानना संभव नहीं है।
वेद की उत्पत्ति कब और कैसे हुई?, इस रहस्य को सुलझाने के लिए भी ऋषियों का इतिहास ही काम आता है। नाभिकमल पर वास करने वाले ब्रह्मा जी और विश्वामित्र के पुरातन इतिहास को जाने बिना इसे हल करना संभव नहीं है। स्वामी जी ने वेदों में इतिहास न मानकर उनकी उत्पत्ति तक पहुंचने का एक मार्ग बंद ही कर दिया है।
    स्वामी दयानन्द जी को इन ऋषियों के प्राचीन इतिहास के विषय में कोई प्रामाणिक जानकारी न थी। उनके द्वारा वेदार्थ में ग़लती करने का यह एक बड़ा कारण है।




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वेदमंत्रों की रचना ऋषियों ने की

    तैत्तिरीय ब्राह्मण भी वेद के सत्यवचन को प्रमाणित करते हुए कहता है-
    यामृषयो मन्त्रकृतो मनीषिणः
    मन्त्र की रचना मनीषी ऋषियों ने की। (तै. ब्रा. 2/8/8/5)




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वेदों में प्राचीन व नवीन ऋषियों के मंत्र संकलित हैं

ये च ऋड्ढयो य च नूत्ना इन्द्र ब्रह्माणि जनयन्त विप्राः।

अस्मे ते सन्तु सख्या शिवानि यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।।9।।
    हे इन्द्रदेव! प्राचीन एवं नवीन ऋषियों द्वारा रचे गए स्तोत्रों से स्तुत्य होकर आपने जिस प्रकार उनका कल्याण किया, वैसे ही हम स्तोताओं का भी मित्रवत् कल्याण करें। आप कृपा करके कल्याणकारी साधनों से हम सबकी सुरक्षा करें।
(ऋग्वेद 7/22/9; अनुवादःपं. श्रीराम शर्मा आचार्य, मथुरा से प्रकाशित, सन् 2005 ई.)
    ‘प्राचीन एवं नवीन ऋषियों द्वारा रचे गए स्तोत्रों’ कहकर वेदों ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है कि वेदमंत्रों की रचना ऋषियों ने की और यह काम कई पीढ़ियों तक चलता रहा।
    स्वामी दयानन्द जी ने वेदों को स्वतःप्रमाण माना है और वेद स्वयं को ऋषियों की रचना बता रहे हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि वेद का यह अनुवाद एक ऐसे महापंडित ने किया है, जो बहुत वर्षों तक आर्यसमाज का प्रतिनिधित्व करते रहे लेकिन जब उन्होंने स्वयं वेद का अनुवाद किया तो उन्होंने स्वामी जी की ग़लत मान्यताओं का अनुकरण न किया। 

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वेदों में नए नए मंत्र

‘इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि समय-समय पर वेदों के नए नए मंत्र बनते रहे हैं और वे पहले बने संग्रहों (संहिताओं अथवा वेदों) में मिलाए जाते रहे हैं। ख़ुद वेदों में ही इस बात के प्रमाण मिल जाते हैं, यथाः
    अथा सोमस्य प्रयतीयुवम्यामिन्द्राग्नी स्तोमं जनयामि नव्यम्.  -1,109,2
    अर्थात हे इंद्र और अग्नि, तुम्हारे सोमप्रदानकाल में पठनीय एक नया स्तोत्र रचता हूं.
    स नो नव्येभिर्वृड्ढकर्मन्नुक्थैः पुरां दर्तः पायुभिः पाहि शग्मैः  -ऋग्वेद 1,130,10
    अर्थात जलवर्षक और नगर विदारक इंद्र, हमारे नए मंत्र (स्तोत्र) से संतुष्ट हो कर विविध प्रकार से रक्षा और सुख देते हुए हमें प्रतिपालित करो.
    तदस्मै नव्यमंगिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते  -ऋग्वेद 2,17,1
    अर्थात हे स्तोताओ, तुम लोग अंगिरा के वंशजों की तरह नई स्तुति द्वारा इंद्र की उपासना करो.
    अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया  -ऋग्वेद 4,16,21
    अर्थात हे हरि विशिष्ट इंद्र हम तुम्हारे लिए नए स्तोत्र बनाते हैं.
    यही शब्द अविकल रूप से 4/17/21; 4/19/11; 4/20/11; 4/21/11; 4/22/11; 4/23/11 और 4/24/11 में भी मिलते हैं।’
    इस तरह के और भी कई मंत्र हैं जिनका उल्लेख करते हुए प्रख्यात वेद मनीषी  डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात लिखते हैं-
    ‘‘स्पष्ट है कि इन स्तोत्रों व मंत्रों के रचयिता साधारण मानव थे, जिन्होंने पूर्वजों द्वारा रचे गए मंत्रों के खो जाने पर या उन के अप्रभावी सिद्ध होने पर या उन्हें परिष्कृत करने या अपनी नई रचना रचने के उद्देश्य से समयसमय पर नए मंत्र रचे. अपनी मौलिकता व अपने प्रयत्नों का विशेष उल्लेख अपनी रचनाओं में कर के उन्होंने अपने को देवता विशेष के अनुग्रह को प्राप्त करने के विशिष्ट पात्र बनाना चाहा है, अन्यथा, वे ‘अपने नए रचे स्तोत्रों’-इस वाक्यांश का प्रयोग, शायद, न करते.’’ (क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म?, पृष्ठ 464 व 465, लेखकः डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात’, प्रकाशक ः विश्व विजय प्रा. लि., एम-12, कनाट सरकस, नई दिल्ली)


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अनुक्रमणी और मंत्र में मंत्रकर्ता ऋषियों के नाम

सूक्त के आरम्भ में एक अनुक्रमणी भी होती है। जिसे शायद वेद व्यास ने ही बनाया है। इस अनुक्रमणी में यह लिखा रहता है कि इस सूक्त का ऋषि कौन है?, देवता कौन है ? और यह किस छंद में है?
    कुछ मंत्रों के अंदर भी सूक्त रचने वाले ऋषि ने अपने नाम का वर्णन किया है। जैसे कि ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 40वें सूक्त के आरम्भ में लिखा है-
ऋषि-घोड्ढा काक्षीवती, देवता-अश्विनी, छंद-जगती
इस सूक्त के 5वें मंत्र में ऋषि घोड्ढा ने अपने नाम का उच्चारण करते हुए कहा है-
    ‘युवां ह घोड्ढा पर्यश्विना यती राज्ञ ऊचे दुहिता पृच्छे वों नरा
    भूतं में अह उत भूतमक्तवेऽवेश्वावते रथिनेशक्तमर्वते।5।
    हे अश्विनी कुमारो! मैं राजकुमारी घोड्ढा सब ओर घूमती हुई तुम्हारा गुणानुवाच करती हूँ और तुम्हारा ही चिन्तन करती रहती हूँ। तुम दिन रात मेरे यहाँ निवास करते हुए रथ और अश्वों से सम्पन्न मेरे भ्राता के पुत्र को वश में रखते हो।’ (अनुवादः पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, प्रकाशकः संस्कृति संस्थान, ख्वाजा क़ुतुब नगर, बरेली, उ.प्र.)
    ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 99वें सूक्त का ऋषि वभ्रो वैखानसः, देवता इन्द्र और छन्द त्रिष्टुप् है। इसके 12वें मंत्र में सूक्त बनाने वाला वभ्र भी अपने नाम का उल्लेख करते हुए कहता है-
    ‘हे इन्द्र! अनेक हवियाँ देने की कामना करता हुआ मैं वभ्र तुम्हारी सेवा में पैदल चलकर आया हूँ, तुम मेरा कल्याण करो तथा श्रेष्ठ अन्न, सुन्दर गृह, सब पदार्थ और बल आदि मुझे दो।’ (अनुवादः पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)
    इसी मण्डल का 100वाँ सूक्त दुवस्युर्वान्दन ने बनाकर उसके अंतिम मंत्र संख्या 12 में कहा है-‘दुवस्यु ऋषियों की रस्सी का अगला भाग आपकी कृपा से ही खींचते हैं।’ (अनुवादः  पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)
    ऋग्वेद का यम-यमी संवाद भी यही सिद्ध करता है कि वेदमंत्रों की रचना मनुष्यों ने की है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 10वें सूक्त के ऋषि यमी वैवस्ती और यमो वैवस्वतः हैं और इस सूक्त के देवता अर्थात प्रतिपाद्य विषय भी यही दोनों हैं। ये आपस में भाई बहन हैं। इन दोनों ने आपस में जो बातचीत की है, वही इस सूक्त में वर्णित है। सूक्त के अंदर भी यम-यमी ने एक दूसरे को नाम लेकर संबोधित किया है।

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वास्तव में वेद कब और कैसे बने?


वेद के बारे में स्वामी दयानन्द जी का विचार ग़लत सिद्ध हो जाने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि वेदों के विषय में सनातनी आचार्यों का मत सही है कि सबसे पहले विश्वामित्र के अन्तःकरण में गायत्री छंद में एक मंत्र की स्फुरणा हुई। जिसे गायत्री मंत्र कहा जाता है। यह पहला काव्य था। विश्वामित्र ने यह काव्य सबसे पहले ब्रह्मा जी को सुनाया। जिनके निर्देशन में वह आदि पुष्कर तीर्थ में साधना कर रहे थे। उन्होंने इसमें अ,उ,म (ओं) और 3 व्याहतियाँ ‘भूर्भुवः स्वः’ जोड़ दीं। विश्वामित्र ने आदि पुष्कर तीर्थ से लौट कर यह काव्य दूसरों को सुनाया तो उन्हें यह अच्छा लगा। दूसरे विद्वानों ने भी गायत्री छंद में मंत्र बनाना सीख लिया। इस तरह ऋचा (वेदमंत्र) की रचना का आरम्भ हुआ। ऋचा रचने वाले को ऋषि कहा गया। वेद का अर्थ ज्ञान और विचार है। जिस ऋषि को जिस विषय का ज्ञान था या जो विचार किया, उसने उसी को छंद में कहा है।
    गायत्री छंद में 3 पाद होते हैं और हरेक पाद में 8 अक्षर होते हैं। इस तरह तीन पाद में कुल 24 अक्षर होते हैं। यह दूसरे मंत्रों से पहले आया और इसी के आधार पर समय के साथ ऋषियों ने मात्राएं और पद बढ़ाकर नए नए छंदों का निर्माण किया। इसलिए इसे वेदमाता भी कहा जाता है।
    ‘‘अक्षरानुबंध के कारण ये अलग अलग छंद कैसे निर्माण हुए होंगे, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’ यह आर्ष ऋग्मंत्र। इसके अक्षर 24 और चरण तीन। सबसे पहली यह स्तुप् अर्थात् स्तुति करने वाली ऋचा। यह कहने में त्रिचरण होने से विषम है। इसमें इसी प्रकार का अष्टाक्षरी चरण जोड़ने से छंद होता है अनुष्टुप्। यह दूसरे क्रमांक से निर्माण हुआ। इसका नाम ही यह सुझाता है कि यह स्तुप् के पश्चात् आया। इसके बाद निर्माण हुआ त्रिष्टुप्। अनुष्टुप् के चार चरण होने के कारण वह कहने में सम लगता है। इसी से उसके पश्चात् जो छंद बने वे प्रायः 4 चरणों के हैं। 32 अक्षर जब एक समूची कल्पना ग्रंथित करने के लिए अपर्याप्त पाये गये। तब 11 अक्षरों का एक एक चरण, ऐसे 44 अक्षरों का एक नया छंद बनाया गया। यह तीसरा छंद है, यह इसके त्रिष्टुप्, नाम में जो ‘त्रि‘ शब्द आया है, उस पर से स्पष्ट होता है। अनुष्टुप् के चार चरणों में अष्टाक्षरी एक और चरण जोड़ें तो बनती है, पंचदा पंक्ति। इन्हीं चालीस अक्षरों का चार चरणों में विभाजन किया जावे तो होगा विराट्। इसी प्रकार से छंद बढ़ते गये और उनका विकास होता गया। गायत्री पहला छंद होते हुए भी विषमता के कारण इतना कविप्रिय नहीं हुआ। अनुष्टुप् छंद वेद वाङ्मय के पश्चात् जो संस्कृत वाङ्मय निर्माण हुआ उसमें यद्यपि आधिक्य से पाया जाता है, तथापि वैदिक छंदवाङ्मय अधिक मात्रा में त्रिष्टुप् छंद में। छंदों की यह संख्या चार चार अक्षरों से बढ़ती हुई गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप्, बृहती, विराट् या पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिजगती, ्यक्करी, अतिशक्करी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति और अतिधृति इस अंतिम 76 अक्षरों के छंद तक गई। किंतु अधिकतर रचना हुई गायत्री, त्रिष्टुप और जगती इन तीन ही छंदों में। यह बात ऊपर दी हुई तालिका से स्पष्ट ही है। ये सारे के सारे छंद इसी क्रम से निर्माण हुए होंगे। क्रम बदलने पर भी अति उपसर्ग से युक्त अति-जगती, शक्करी, अतिशक्करी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति और अतिधृति ये नाम ही इनकी निर्मिति जगती, शक्करी, अष्टि, तथा धृति के पश्चात हुई, इस बात को प्रमाणित करते हैं।’’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 13 व 14, लेखक ः  प्रा.ह.रा.दिवेकर, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के लिये मोतीलाल बनारसीदास बंगलोरोड, जवाहर नगर, दिल्ली-7 द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण 1970)
    इस पुस्तक में ‘प्रारम्भिक दो शब्द’ लिखते हुए जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर के कुलपति श्री सी. शा. भांडारकर लिखते हैं-
    ‘जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के द्वारा, ग्वालियर के एक तपे हुए संस्कृत पंडित की यह साहित्यकृति, प्रकाश में लाते हुए, मुझे अत्यंत आनंद होता है। इसके लेखक वय, विद्या तथा ज्ञान तीनों दृष्टियों से वृद्ध व्यक्ति हैं। जिन्होंने साठ वर्षों  से अधिक काल तक वेदों का प्राचीन तथा अर्वाचीन दोनों दृष्टियों से अभ्यास किया है और आज तक भी जिनका अभ्यास चल ही रहा है। ऐसे लेखक ने इस ग्रंथ में ऋग्वेद के 1028 सूक्तों का कालक्रमानुसार दर्शन कराया है। ...लेखक के मतानुसार सारे ही ऋग्वेद की रचना महाभारत युद्ध के पूर्व साठ पीढ़ियों में हुई है।’
    बहुत से ऋषियों ने बहुत से विड्ढयों का विचार किया और बहुत से मंत्रों की रचना की। इन सब मंत्रों को संकलित किया गया तो संहिता बन गई। इसीलिए वेद को संहिता भी कहा जाता है। यह काम वेद व्यास ने किया।
    ‘इसने गद्य, पद्य या गान यह विभाजक लक्षण न मान तत्कालीन यज्ञ-पद्धति के अनुसार अध्वर्यु के लिए उपयुक्त मंत्र-वे गद्य रूप हों या पद्य रूप-अलग निकाले, उद्गाता के लिए आवश्यक जो भाग था-वह पाठ रूप हो या गान रूप-उसे पृथक किया और शेष जो पद्य वाङ्मय तब तक निर्मित हुआ था उसे एकत्रित किया। ये ही आज की यजुर्वेद, सामवेद तथा ऋग्वेद की संहिताएं हैं। कृष्ण द्वैपायन-जिन्हें आगे चलकर इसी कारण वेद व्यास कहने लगे-के पश्चात इन संहिताओं पर नया संस्कार कोई नहीं हुआ।’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 11)
    ‘ये सारे सूक्त प्रधानतः देवों की स्तुति करने हेतु से ही निर्माण हुए। और इसीलिए ‘या तेनोच्यते सा देवता‘ यह लक्षण रूढ़ हुआ। ये वैदिक देव भी अनेक हैं। ...प्रथम सूर्य, अग्नि, वायु इत्यादि प्रकृतिस्थ शक्तियां ही देवता मानी गईं और उनका यजन होने लगा। बाद में मनुष्यों के ही पराक्रमी, शत्रुनाशक, लोकपालक राजा की सदृशता से देवराज इंद्र की कल्पना आई होगी। विचार वृद्धि के साथ नैतिक कल्पनाओं के आधार पर मित्र, वरूण इत्यादि देवताओं की निर्मिति हुई और उसी समय घोड़े पर चढ़ दौड़कर आने वाले दो लोकोपकारक वीर भाइयों ने ‘अश्विनौ‘ इस जुगलबंद दो देवों की कल्पना निर्माण की होगी। इस द्वन्दात्मक कल्पना का ही विकास अग्निड्ढोमौ, इंद्राग्नी, इंद्रवायू, मित्रावरूणौ इत्यादि द्वन्द्वों में दिखता है। इंद्र के साथ उसके सहायक मरूत् भी कल्पे गये और अपने कृत्यों से देवता को प्राप्त करने वाले जो ऋभु उनकी भी कल्पना आई और इन सब पर सूक्त रचना हुई। काव्यों के विषय भी बढ़ते गये और ऊपर लिखा हुआ ‘देवता लक्षण’ प्रयुक्त किया जाकर उन सारे विड्ढयों को देवत्व की प्राप्ति हुई। घोड़े, गोएं, अरण्य इत्यादि भी देवताओं में समाविष्ट किये गये। अंत में विश्वेदेव-सारे देव-जिन-जिन की हम कल्पना कर सकते हैं, उन पर भी सूक्त लिखे गये। इस देवता विकास का भी सूक्तों का कालानुक्रम निश्चित करने में उपयोग किया गया है।’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 14-15)

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स्वामी जी की प्रार्थना क्यों पूरी नहीं हुई?

स्वामी जी ने अपना वेदभाष्य आरंभ करने से पहले परमेश्वर से इन शब्दों में प्रार्थना की थी-
    ‘और आपकी कृपा के सहाय से सब विघ्न हम से दूर रहें कि जिससे इस वेदभाष्य के करने का हमारा अनुष्ठान सुख से पूरा हो। इस अनुष्ठान में हमारे शरीर में आरोग्य, बुद्धि, सज्जनों का सहाय, चतुरता और सत्यविद्या का प्रकाश सदा बढ़ता रहे। इस भद्रस्वरूप सुख को आप अपनी सामथ्र्य से हमको दीजिए, जिस कृपा के सामथ्र्य से हम लोग सत्य विद्या से युक्त जो आपके बनाए वेद हैं उनके यथार्थ अर्थ से युक्त भाष्य को सुख से विधान करें। सो यह वेदभाष्य आपकी कृपा से संपूर्ण हो के सब मनुष्यों का सदा उपकार करने वाला हो’
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ईश्वरप्रार्थनाविषय, पृष्ठ 5)
1. ईश्वर ने स्वामी जी की यह प्रार्थना स्वीकार नहीं की।
2. उनका वेदभाष्य सुख से तो क्या दुख के साथ भी पूरा नहीं हुआ।
3. इस अनुष्ठान में लगने के बाद उन्हें आरोग्य आदि भी नहीं मिला, उल्टे ईश्वर ने उन्हें खाट पकड़ा दी और उनके प्राण ले लिए।
4. वह और उनके शिष्य स्वामी जी की मान्यतानुसार वेद के यथार्थ अर्थ का सुख से विधान न कर सके।
5. ईश्वर की कृपा न होने से उनके द्वारा वेदभाष्य संपूर्ण न हुआ। जिसकी प्रार्थना स्वामी जी ने की थी।
इसका कारण स्वामी जी की मान्यताओं में ढूंढने की कोशिश की गई तो यह लिखा हुआ मिलता है-
    ‘देवास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
    न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्।।मनु.।।
    जो दुष्टाचारी अजितेन्द्रिय पुरूष है उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते। (सत्यार्थप्रकाश, तृतीयसमुल्लास, पृ.34)

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वेद का सच्चा अर्थ जानने का फल

    स्वयं स्वामी जी ने भी वेद का अर्थ जानने वाले का यह लक्षण बताया है कि वह सब दुःखों से रहित हो कर मोक्ष सुख को प्राप्त होता है। देखिए-
    ‘(स्थाणु0) जो मनुष्य वेदों को पढ़ के उन के अर्थ नहीं जानता, वह उनके सुख को न पाकर भार उठाने वाले वृक्ष के समान है, जो कि अपने फल फूल डाली आदि को बिना गुणबोध के उठा रहे हैं। किन्तु जैसे उनके सुख को भोगने वाला कोई दूसरा भाग्यवान् मनुष्य होता है, वैसे ही पाठ के पढ़ने वाले भी परिश्रमरूप भार को तो उठाते हैं, परन्तु उनके अर्थज्ञान से आनन्दरूप फल को नहीं भोग सकते। (योऽर्थज्ञः0) और जो अर्थ का जानने वाला है, वह अधर्म से बचकर, धर्मात्मा होके, जन्म मरणरूप दुःख का त्याग करके, संपूर्ण सुख को प्राप्त होता है। क्योंकि जो ज्ञान से पवित्रात्मा होता है, वह (नाकमेति) सर्वदुःख रहित होके मोक्षसुख को प्राप्त होता है। इसी कारण वेदादि शास्त्रों को अर्थज्ञानसहित पढ़ना चाहिए।’ (ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, पठन पाठन विषयः, पृष्ठ 247)

    जब एक पाठक स्वामी जी को उन्हीं की बताई कसौटी पर परखकर देखता है तो वह पाता है कि
स्वामी जी को न तो संपूर्ण सुख प्राप्त हुआ,
न ही उनके सब दुख दूर हुए और
न ही उन्हें मोक्षसुख प्राप्त हुआ।
इस तरह एक सच्चे वेदज्ञानी के ये लक्षण स्वामी दयानन्द जी में नहीं मिलते। अपने ही वेदार्थ की कसौटी पर भी वह खरे नहीं उतरते।


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हम वेद का आदर करते हैं

हम वेद का आदर करते हैं क्योंकि उसमें हमारे मनीषी पूर्वजों का इतिहास और चिंतन सुरक्षित है। आधुनिक

वैज्ञानिक खोजों ने स्वामी दयानन्द जी के वेदार्थ को ग़लत सिद्ध कर दिया है। उनकी ग़लत दार्शनिक मान्यताओं को नकारे बिना वेदों का वास्तविक अर्थ जानना संभव नहीं है।


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बहुत अधिक उन्नति के बाद मनुष्य को वेद मिले

वेदों के अध्ययन से यह पता चलता है कि आय्र्यावत्र्त देश के मनुष्य बहुत अधिक उन्नति कर चुके थे। वे संस्कृत भाषा बोलने लगे थे। वे व्याकरण और स्वरों को जानते थे। वे काव्य को समझने लगे थे। उन्होंने रथ बनाना सीख लिया था। उन्होंने घोड़े व गाय आदि पालना सीख लिया था। उन्होंने गाय आदि का दूध निकालने व उससे घी निकालने की तकनीक विकसित कर ली थी। वे हवन करते थे। उन्होंने मुर्दों को जलाना भी शुरू कर दिया था। इसका मतलब यह है कि अग्नि की खोज, पहिये के अविष्कार और घी के निर्माण के बाद ही आर्यों ने वेदों को प्राप्त किया, उससे पहले नहीं अन्यथा वे वैदिक संस्कारों को संपन्न न कर पाते। जिनका वर्णन वेदों में मिलता है।
    वेद मिलने से पहले ही आर्य क़िले व बाँध बनाना जान गए थे। उन्होंने खेती करना व व्यापार करना भी सीख लिया था। उन्होंने सोने के सिक्के बनाना सीख लिया था। उनका व्यापार मुद्रा विनिमय के स्तर तक आ पहुंचा था। वे लोग अपना राजा चुनते थे। वे हर तरह से समृद्ध नगरों में रहते थे। उन्होंने लकड़ी, पत्थर और धातुओं से हथियार बनाने और उन्हें चलाने की कला भी सीख ली थी। उनकी अपनी सेना थी। उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी थे। वे युद्ध में असुर आदि शत्रुओं को मार डालते थे। वे बीमारियों की चिकित्सा करने में प्रवीण थे। उन्हें दवाओं का अच्छा ज्ञान था। वे भौतिक व रसायन विज्ञान में प्रवीण थे। इन बातों को सनातनी और आर्य विद्वान दोनों ही मानते हैं।
स्वामी दयानंद जी के अनुसार तो वेदों में विमान और तार विद्या (टेलीग्राम) का भी वर्णन है। (देखें ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नौविमानादिविद्याविषयः, पृष्ठ 149 व तारविद्यामूलविषयः, पृष्ठ 155)
इसका अर्थ यह हुआ कि जिस समय आर्यों को वेद मिले उस समय तक वे विमान, टेलीग्राम यंत्र और बिजली बनाने के साद्दन तैयार कर चुके थे। इस तरह वेदों को प्राप्त करने वाली आर्य सभ्यता एक अति उन्नत सभ्यता के रूप में सामने आती है।
स्वामी जी के अनुसार परमेश्वर ने वेद में आर्यों की तोप और बंदूक़ों को भी स्थिर रहने का आशीर्वाद दिया है।
‘हे मनुष्यो! तुम लोग सब काल में उत्तम बल वाले हो। किन्तु तुम्हारे (आयुधा) अर्थात् आग्नेयास्त्रादि अस्त्र और (शतघ्नी) तोप (भुशुण्डी) बन्दूक, धनुषबाण और तलवार आदि शस्त्र सब स्थिर हों।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ईश्वरस्तुति., पृ.114)
इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि जिस समय ईश्वर ने वेद में आर्यों को अपना आशीर्वाद दिया। उस समय आर्यों की सेना के पास तोप और बंदूक़ें मौजूद थीं। इतनी उन्नति सौ दो सौ वर्ष में संभव नहीं है। इसके लिए हज़ारों वर्ष का समय चाहिए। अतः मनुष्य की उत्पत्ति के हज़ारों वर्ष बाद मनुष्य को वेद प्राप्त होना सिद्ध होता है न कि सृष्टि के आदि में। जैसा कि स्वामी जी की मान्यता है।
वेद अपना काल स्वयं ही बता रहे हैं लेकिन उसे समझने में स्वामी दयानंद जी पूरी तरह असफल रहे। वास्तव में स्वामी जी न वेदों का काल समझ पाए और न ही वास्तविक वेदार्थ। स्वामी जी वेदों का वास्तविक काल और उनका अर्थ नहीं जानते थे लेकिन फिर भी उन्होंने यह दावा किया है कि
‘यह भाष्य प्राचीन आचाय्र्यों के भाष्यों के अनुकूल बनाया जाता है। परन्तु जो रावण, उवट, सायण और महीधर आदि ने भाष्य बनाये हैं, वे सब मूलमन्त्र और ऋषिकृत व्याख्यानों से विरुद्ध हैं। मैं वैसा भाष्य नहीं बनाता।’
‘इस में कोई बात अप्रमाण व अपनी रीति से नहीं लिखी जाती।’
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, भाष्यकरणशंकासमाधान विषयः, पृष्ठ 251)

(40) स्वामी जी का दावा ग़लत था। उनके वेदार्थ में ग़लतियाँ देखने वाले वेदों को ईश्वर की वाणी कैसे मान पाएंगे?

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वेदों की रचना के समय का निर्णय वेदों के आधार पर

वास्तव में वेद स्वयं बताते हैं कि वे कब रचे गए ?
    वेदों के अध्ययन से पता चलता है कि जब मनुष्य ने वेदों को प्राप्त किया, तब असुर व दस्यु आदि वर्तमान थे और वे आर्यों से युद्ध करते रहते थे। इनका वर्णन वेदों में आया है। स्वामी जी ने मनु स्मृति के आधार पर बताया है कि
    ‘आर्य्यवर्त से भिन्न पूर्व देश से लेकर ईरान, उत्तर, वायव्य और पश्चिम देशों में रहने वालों का नाम दस्यु, म्लेच्छ और असुर है’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टमसमुल्लास, पृष्ठ 152)
    अतः सिद्ध होता है कि जब ईरान तथा पश्चिमी देशों में मनुष्य निवास करने लगे, उसके बाद मनुष्यों को वेद प्राप्त हुए, उससे पहले नहीं। एक नगर को बसने में ही कई सौ वर्ष लग जाते हैं। किसी एक जगह पैदा होने के बाद मनुष्यों को इतनी दूर दूर जाने में और इतने सारे देश बसाने में कितने हज़ार वर्ष लग गए होंगे।
    स्वामी जी स्वयं कहते हैं-
    ‘एतद्देशस्य प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।मनु.।।
सृष्टि से ले के पांच सहò वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देश में माण्डलिक अर्थात् छोटे छोटे राजा रहते थे क्योंकि कौरव पाण्डव पर्यन्त यहां के राज्य और राजशासन में भूगोल के सब राजा और प्रजा चले थे क्योंकि यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई है उसका प्रमाण है।’ सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास,पृ.187)
    स्वामी जी के कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि जिस समय मनुष्य को वेद और मनुस्मृति मिले, उस समय सारी पृथ्वी पर बहुत से देश और राजा थे। सारी धरती पर प्रजा का पालन हो रहा था। जिस काल में यह सब हो रहा था, उसे सृष्टि का आदि कहना ग़लत है। अतः वेदों की भांति मनुस्मृति का भी सृष्टि के आदि में होने की बात कहना ग़लत है।
     इससे पता चलता है कि वेद मनुष्य को सृष्टि के आदि में नहीं मिले वरन तब मिले जबकि दुनिया में बहुत से देश और बहुत सी सभ्यताएं बन चुकी थीं। उनकी भाषाएं, संस्कृतियां और मान्यताएं भी आर्यों से अलग थीं। उनके पास राजा, सेना और हथियार आदि सब कुछ था और उन्होंने यह सब उन्नति वेद के आने से पहले ही कर ली थी। वेद के दुनिया में आने से पहले ही बहुत तरह की विद्या का प्रकाश असुर आदि मनुष्यों में हो चुका था। जिनका ज़िक्र वेदों में मिलता है।
    अतः स्वामी दयानंद जी का यह कहना भी ग़लत है कि
    ‘यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं वे सब आर्य्यवर्त देश ही से प्रचारित हुए हैं।‘ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्ठ 189)
    सारी दुनिया में विद्या यहां से फैलती तो वेद और मनुस्मृति भी पूरी दुनिया में फैल चुके होते और संस्कृत भाषा विश्व भर में बोली जाती, जैसे कि आज अंग्रेज़ी बोली जाती है। वर्ण व्यवस्था और छूतछात भी दुनिया में फैली हुई मिलती लेकिन दुनिया के सब देशों में इन सबका कहीं पता नहीं मिलता। यहां से विद्या दुनिया में तो क्या फैलती, यहां भी न फैल पाई। वेद-उपनिषदों को दुनिया के सामने मुसलमान और ईसाई भाई लाए। दाराशिकोह ने मजमउल-बहरैन के नाम से फ़ारसी में उपनिषदों का अनुवाद करवाया। तब दुनिया ने उन्हें पढ़ा। मैक्समूलर ने दुनिया को वेदों से परिचित करवाया। उसे भी भारत में बड़ी परेशानियां झेलने और काफ़ी माल ख़र्च करने के बाद वेद मिले। स्वयं स्वामी जी को भी भारत में वेद न मिले, जर्मनी से मंगाने पड़े।


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स्वामी जी मनुष्य की उत्पत्ति का काल जानने में भी असफल रहे

सृष्टि संवत के आधार पर ही स्वामी जी ने मनुष्य की उत्पत्ति भी लगभग एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पूर्व मान ली। आधुनिक खोजों के बाद आज यह जानना संभव है कि एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी की जलवायु कैसी थी और यह भी कि उस वातावरण में मनुष्य जीवित रह सकता था या नहीं ?
    देखिए वैज्ञानिक तथ्यों को प्रदर्शित करता एक चित्र, जिसमें वैज्ञानिकों ने दर्शाया गया है कि एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पहले धरती पर मनुष्य नहीं पाया जाता था।
 
¤¤प्रकाशित पुस्तक में इस स्थान पर encyclopedia की ग्राफिक दी गयी है¤¤¤

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आर्य ज्योतिषियों का फलित भी ग़लत और गणित भी ग़लत

स्वामी जी ने ज्योतिष के फलित को ग़लत और उसके गणित को सही माना है। वह ज्योतिष की काल गणना पर विश्वास करके धोखा खा गए। बाद के वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला कि जगत और मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में आर्य ज्योतिषियों की काल गणना बिल्कुल ग़लत है। स्वामी जी कह रहे हैं कि आर्यों ने एक एक क्षण का हिसाब ठीक से सुरक्षित रखा है लेकिन हक़ीक़त यह है कि आर्यों ने सृष्टि की उत्पत्ति की जो काल गणना की है, उसमें 11 अरब वर्ष  से ज़्यादा की गड़बड़ है।

    वास्तव में स्वामी जी को पता नहीं था कि सितारे और ग्रह कैसे बनते हैं और उन्हें बनने में कितने अरब वर्ष का काल लगता है ?, अपनी ओर से उन्होंने लंबी से लंबी कल्पना कर ली लेकिन सृष्टि की आयु उससे भी कई गुना ज़्यादा निकली और उनका मत झूठा सिद्ध हो गया।



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