Sunday, September 4, 2016

anwer jamal Book भूमिका

इन्सान का रास्ता नेकी और भलाई का रास्ता है। यह रास्ता सिर्फ उन्हें नसीब होता है जो धर्म और दर्शन (Philosophy) में अन्तर जानने की बुद्धि रखते हैं। धर्म ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है जो मूलतः न बदलता है और न ही कभी बदला जा सकता है, अलबत्ता धर्म से हटने वाला अपने विनाश को न्यौता दे बैठता है और जब यह हटना व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो तो फिर विनाश की व्यापकता भी बढ़ जाती है।
    दर्शन इन्सानी दिमाग़ की उपज होते हैं। ये समय के साथ बनते और बदलते रहते हैं। धर्म सत्य होता है जबकि दर्शन इन्सान की कल्पना पर आधारित होते हैं। जैसे सत्य का विकल्प कल्पना नहीं होती है। ऐसे ही धर्म की जगह दर्शन काम नहीं दे सकता। दर्शन में सही और लाभदायक शिक्षाएं होती हैं लेकिन इनसे लाभ लेने के लिए भी धर्म का ज्ञान अनिवार्य है।
धर्म को भुलाकर दर्शन के अनुसार जीना ग़लत ढंग से जीना है, जिसका अंजाम तबाही की शक्ल में सामने आता है। इसीलिए हज़ारों वर्ष पहले हमारे समाज में बहुदेववाद, जातिवाद और अन्याय पनपा, युद्ध हुए। एक आर्यावर्त में हज़ारों देश बने। विदेशी आक्रमण से ज़्यादा देशी आक्रमण हुए। परायों से ज़्यादा अपनों का ख़ून, अपनों के हाथों बहता रहा। विद्वान बताते हैं कि अकेले महाभारत के युद्ध में ही 1 अरब 66 करोड़ मनुष्य मारे गए। हज़ारों युद्ध और भी हुए, लाखों तबाहियाँ हुईं और आखि़रकार भारतीय विदेशियों के ग़ुलाम बन गए। वे आज भी क़र्ज़दार हैं। भारत को तीसरी दुनिया के देशों में गिना जाता है। इस तरह धर्म वाला विश्वगुरू भारत दर्शनों पर चलकर बर्बाद हो गया।
    भारत एक धर्म प्रधान देश था लेकिन बाद में दार्शनिकों ने इसे दर्शन प्रधान बना दिया। आज हर तरफ़ दर्शनों का बोलबाला है। दर्शनों की भीड़ में धर्म कहीं खो गया है। आज वैदिक धर्म में अग्नि का बड़ा महत्व है। अग्नि के बिना यज्ञ-हवन नहीं हो सकता। वैदिक धर्म के 16 संस्कारों में से कोई एक भी बिना अग्नि के संपन्न नहीं हो सकता। जबकि अग्नि की खोज से पहले मनुष्य परमेश्वर की उपासना और अंतिम संस्कार आदि अग्नि के बिना ही करता था।
    अग्नि की खोज के बाद धर्म के रूप को बदल दिया गया। पहले जिस धर्म में उपासना के लिए ध्यान और नमन था, उसमें अब हवन भी शुरू कर दिया। इस तरह धर्म से हटने और दर्शन पर चलने की शुरूआत हुई। इन्हें लिखा गया तो वर्तमान वेद, उपनिषद व दर्शन आदि बन गए। समय के साथ यज्ञ के रीति रिवाज जटिल हो गए। राजकोष जनकल्याण के कामों पर ख़र्च होने के बजाय महीनों चलने वाले महंगे यज्ञों में स्वाहा होने लगा। तब बौद्ध, जैन और चार्वाक आदि ने जनता के विरोध को स्वर दिया। उनकी बातों में भी दर्शन था। यज्ञ करने वाले और उनका विरोध करने वाले, दोनों ही दर्शन की बातें कर रहे थे। धर्म कहीं पीछे छूट चुका था।
    ये अनेकों दर्शन धर्म की जगह लेते चले गए। इसी से विकार जन्मे। सुधारकों ने उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया। लाखों गुरूओं के हज़ारों साल के प्रयास के बावजूद यह भारत भूमि आज तक जुर्म, पाप और अन्याय से पवित्र न हो सकी। कारण, प्रत्येक सुधारक ने पिछले दर्शन की जगह अपने दर्शन को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया, धर्म को नहीं। उन्हें पता ही न था कि दर्शनों की रचना से पूर्व धर्म का स्वरूप क्या था ?
    स्वामी दयानन्द जी भी एक ऐसे ही दार्शनिक थे। धर्म को न जानने के कारण उन्होंने सुबह शाम अग्निहोत्र (हवन) करना हरेक मनुष्य का कर्तव्य निश्चित कर दिया और न करने वाले को सत्यार्थप्रकाश, चौथे समुल्लास (पृष्ठ 65) में शूद्र घोषित कर दिया। आर्य समाज मंदिरों में भी दोनों समय हवन नहीं होता। आर्य समाज के सदस्य और पदाधिकारी तक दोनों समय हवन नहीं करते, कर भी नहीं सकते। सुबह शाम हवन, वह आर्य समाजियों से अपने सामने भी न करा पाए।
    नतीजा यह हुआ कि जो लोग उनके पास आर्य बनने के लिए आते थे, वे हवन न करने के कारण शूद्र अर्थात मूर्ख बनते रहे। स्वामी दयानंद जी के अनुसार सनातनी पंडित लोगों को मूर्ख बना रहे थे और उनका विरोध करने वाले स्वामी जी ख़ुद भी आजीवन यही करते रहे। उनके बाद भी यह सिलसिला जारी है। उनकी घोर असफलता का कारण केवल यह था कि उन्हें दर्शन का ज्ञान था, धर्म का नहीं।
    धर्म में ध्यान और नमन है, हवन नहीं। अग्नि की खोज से पहले भी धर्म यही था और आज भी धर्म यही है। सनातन काल से मनुष्य का धर्म यही है। इसलाम इसी सनातन धर्म की शिक्षा देता है। इसलाम का विरोध वही करता है, जिसे धर्म के आदि सनातन स्वरूप का ज्ञान नहीं है। ऐसे ही दार्शनिकों के कारण बहुत से मत बने और अधिकतर मनुष्य धर्म से हटकर विनाश को प्राप्त हुए।
    जिस भूमि के अन्न-जल से हमारी परवरिश हुई और जिस समाज ने हम पर उपकार किया, उसका हित चाहना हमारा पहला कर्तव्य है। मानवता को महाविनाश से बचाने के उद्देश्य से ही यह पुस्तक लिखी गई है। जगह-जगह मिलने वाले दयानन्दी बंधुओं के बर्ताव ने भी इस पुस्तक की ज़रूरत का अहसास दिलाया और स्वयं स्वामी जी का आग्रह भी था-
    ‘इस को देख दिखला के मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करके मुझे वा सब महाशयों का मुख्य कर्तव्य काम है।’ (भूमिका, सत्यार्थप्रकाश, पृष्‍ठ 5, 30वाँ संस्करण)
    सो हमने अपना कर्तव्य पूरा किया। अब ज़िम्मेदारी आप की है। आपका फै़सला बहुत अहम है। अपना शुभ-अशुभ अब स्वयं आपके हाथ है। स्वामी जी के शब्दों में हम यह विनम्र निवेदन करना चाहेंगे कि
‘यह लेख हठ, दुराग्रह, ईष्र्या, द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिए किया गया है न कि इनको बढ़ाने के अर्थ। क्योंकि एक दूसरे की हानि करने से पृथक् रह परस्पर को लाभ पहुँचाना हमारा मुख्य कर्म है।’ (सत्यार्थप्रकाश, अनुभूमिका 4, पृ.360)
    ‘इस मेरे कर्म से यदि उपकार न मानें तो विरोध भी न करें। क्योंकि मेरा तात्पर्य किसी की हानि या विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने का है।’ (सत्यार्थप्रकाश, अनुभूमिका, पृ.186)

विनीत,
डा. अनवर जमाल              
दिनांक - बुद्धवार, 29 जुलाई 2009
श्रावण, अष्टमी द्वितीया, सं. 2066
द्वितीय, दिनांकः रविवार, 15 सितम्बर 2013
9 ज़ी-क़ाअदा 1434 हिजरी


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 http://www.mediafire.com/download/ydp77xzqb10chyd/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition.pdf
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पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --
 https://archive.org/stream/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-published-book/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition#page/n0/mode/2up
पुस्तक युनिकोड में चार पार्ट में इधर भी है --
http://108sawal.blogspot.in/2015/04/swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya.html

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