Wednesday, September 7, 2016

वास्तव में वेद कब और कैसे बने?


वेद के बारे में स्वामी दयानन्द जी का विचार ग़लत सिद्ध हो जाने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि वेदों के विषय में सनातनी आचार्यों का मत सही है कि सबसे पहले विश्वामित्र के अन्तःकरण में गायत्री छंद में एक मंत्र की स्फुरणा हुई। जिसे गायत्री मंत्र कहा जाता है। यह पहला काव्य था। विश्वामित्र ने यह काव्य सबसे पहले ब्रह्मा जी को सुनाया। जिनके निर्देशन में वह आदि पुष्कर तीर्थ में साधना कर रहे थे। उन्होंने इसमें अ,उ,म (ओं) और 3 व्याहतियाँ ‘भूर्भुवः स्वः’ जोड़ दीं। विश्वामित्र ने आदि पुष्कर तीर्थ से लौट कर यह काव्य दूसरों को सुनाया तो उन्हें यह अच्छा लगा। दूसरे विद्वानों ने भी गायत्री छंद में मंत्र बनाना सीख लिया। इस तरह ऋचा (वेदमंत्र) की रचना का आरम्भ हुआ। ऋचा रचने वाले को ऋषि कहा गया। वेद का अर्थ ज्ञान और विचार है। जिस ऋषि को जिस विषय का ज्ञान था या जो विचार किया, उसने उसी को छंद में कहा है।
    गायत्री छंद में 3 पाद होते हैं और हरेक पाद में 8 अक्षर होते हैं। इस तरह तीन पाद में कुल 24 अक्षर होते हैं। यह दूसरे मंत्रों से पहले आया और इसी के आधार पर समय के साथ ऋषियों ने मात्राएं और पद बढ़ाकर नए नए छंदों का निर्माण किया। इसलिए इसे वेदमाता भी कहा जाता है।
    ‘‘अक्षरानुबंध के कारण ये अलग अलग छंद कैसे निर्माण हुए होंगे, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’ यह आर्ष ऋग्मंत्र। इसके अक्षर 24 और चरण तीन। सबसे पहली यह स्तुप् अर्थात् स्तुति करने वाली ऋचा। यह कहने में त्रिचरण होने से विषम है। इसमें इसी प्रकार का अष्टाक्षरी चरण जोड़ने से छंद होता है अनुष्टुप्। यह दूसरे क्रमांक से निर्माण हुआ। इसका नाम ही यह सुझाता है कि यह स्तुप् के पश्चात् आया। इसके बाद निर्माण हुआ त्रिष्टुप्। अनुष्टुप् के चार चरण होने के कारण वह कहने में सम लगता है। इसी से उसके पश्चात् जो छंद बने वे प्रायः 4 चरणों के हैं। 32 अक्षर जब एक समूची कल्पना ग्रंथित करने के लिए अपर्याप्त पाये गये। तब 11 अक्षरों का एक एक चरण, ऐसे 44 अक्षरों का एक नया छंद बनाया गया। यह तीसरा छंद है, यह इसके त्रिष्टुप्, नाम में जो ‘त्रि‘ शब्द आया है, उस पर से स्पष्ट होता है। अनुष्टुप् के चार चरणों में अष्टाक्षरी एक और चरण जोड़ें तो बनती है, पंचदा पंक्ति। इन्हीं चालीस अक्षरों का चार चरणों में विभाजन किया जावे तो होगा विराट्। इसी प्रकार से छंद बढ़ते गये और उनका विकास होता गया। गायत्री पहला छंद होते हुए भी विषमता के कारण इतना कविप्रिय नहीं हुआ। अनुष्टुप् छंद वेद वाङ्मय के पश्चात् जो संस्कृत वाङ्मय निर्माण हुआ उसमें यद्यपि आधिक्य से पाया जाता है, तथापि वैदिक छंदवाङ्मय अधिक मात्रा में त्रिष्टुप् छंद में। छंदों की यह संख्या चार चार अक्षरों से बढ़ती हुई गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप्, बृहती, विराट् या पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिजगती, ्यक्करी, अतिशक्करी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति और अतिधृति इस अंतिम 76 अक्षरों के छंद तक गई। किंतु अधिकतर रचना हुई गायत्री, त्रिष्टुप और जगती इन तीन ही छंदों में। यह बात ऊपर दी हुई तालिका से स्पष्ट ही है। ये सारे के सारे छंद इसी क्रम से निर्माण हुए होंगे। क्रम बदलने पर भी अति उपसर्ग से युक्त अति-जगती, शक्करी, अतिशक्करी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति और अतिधृति ये नाम ही इनकी निर्मिति जगती, शक्करी, अष्टि, तथा धृति के पश्चात हुई, इस बात को प्रमाणित करते हैं।’’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 13 व 14, लेखक ः  प्रा.ह.रा.दिवेकर, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के लिये मोतीलाल बनारसीदास बंगलोरोड, जवाहर नगर, दिल्ली-7 द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण 1970)
    इस पुस्तक में ‘प्रारम्भिक दो शब्द’ लिखते हुए जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर के कुलपति श्री सी. शा. भांडारकर लिखते हैं-
    ‘जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के द्वारा, ग्वालियर के एक तपे हुए संस्कृत पंडित की यह साहित्यकृति, प्रकाश में लाते हुए, मुझे अत्यंत आनंद होता है। इसके लेखक वय, विद्या तथा ज्ञान तीनों दृष्टियों से वृद्ध व्यक्ति हैं। जिन्होंने साठ वर्षों  से अधिक काल तक वेदों का प्राचीन तथा अर्वाचीन दोनों दृष्टियों से अभ्यास किया है और आज तक भी जिनका अभ्यास चल ही रहा है। ऐसे लेखक ने इस ग्रंथ में ऋग्वेद के 1028 सूक्तों का कालक्रमानुसार दर्शन कराया है। ...लेखक के मतानुसार सारे ही ऋग्वेद की रचना महाभारत युद्ध के पूर्व साठ पीढ़ियों में हुई है।’
    बहुत से ऋषियों ने बहुत से विड्ढयों का विचार किया और बहुत से मंत्रों की रचना की। इन सब मंत्रों को संकलित किया गया तो संहिता बन गई। इसीलिए वेद को संहिता भी कहा जाता है। यह काम वेद व्यास ने किया।
    ‘इसने गद्य, पद्य या गान यह विभाजक लक्षण न मान तत्कालीन यज्ञ-पद्धति के अनुसार अध्वर्यु के लिए उपयुक्त मंत्र-वे गद्य रूप हों या पद्य रूप-अलग निकाले, उद्गाता के लिए आवश्यक जो भाग था-वह पाठ रूप हो या गान रूप-उसे पृथक किया और शेष जो पद्य वाङ्मय तब तक निर्मित हुआ था उसे एकत्रित किया। ये ही आज की यजुर्वेद, सामवेद तथा ऋग्वेद की संहिताएं हैं। कृष्ण द्वैपायन-जिन्हें आगे चलकर इसी कारण वेद व्यास कहने लगे-के पश्चात इन संहिताओं पर नया संस्कार कोई नहीं हुआ।’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 11)
    ‘ये सारे सूक्त प्रधानतः देवों की स्तुति करने हेतु से ही निर्माण हुए। और इसीलिए ‘या तेनोच्यते सा देवता‘ यह लक्षण रूढ़ हुआ। ये वैदिक देव भी अनेक हैं। ...प्रथम सूर्य, अग्नि, वायु इत्यादि प्रकृतिस्थ शक्तियां ही देवता मानी गईं और उनका यजन होने लगा। बाद में मनुष्यों के ही पराक्रमी, शत्रुनाशक, लोकपालक राजा की सदृशता से देवराज इंद्र की कल्पना आई होगी। विचार वृद्धि के साथ नैतिक कल्पनाओं के आधार पर मित्र, वरूण इत्यादि देवताओं की निर्मिति हुई और उसी समय घोड़े पर चढ़ दौड़कर आने वाले दो लोकोपकारक वीर भाइयों ने ‘अश्विनौ‘ इस जुगलबंद दो देवों की कल्पना निर्माण की होगी। इस द्वन्दात्मक कल्पना का ही विकास अग्निड्ढोमौ, इंद्राग्नी, इंद्रवायू, मित्रावरूणौ इत्यादि द्वन्द्वों में दिखता है। इंद्र के साथ उसके सहायक मरूत् भी कल्पे गये और अपने कृत्यों से देवता को प्राप्त करने वाले जो ऋभु उनकी भी कल्पना आई और इन सब पर सूक्त रचना हुई। काव्यों के विषय भी बढ़ते गये और ऊपर लिखा हुआ ‘देवता लक्षण’ प्रयुक्त किया जाकर उन सारे विड्ढयों को देवत्व की प्राप्ति हुई। घोड़े, गोएं, अरण्य इत्यादि भी देवताओं में समाविष्ट किये गये। अंत में विश्वेदेव-सारे देव-जिन-जिन की हम कल्पना कर सकते हैं, उन पर भी सूक्त लिखे गये। इस देवता विकास का भी सूक्तों का कालानुक्रम निश्चित करने में उपयोग किया गया है।’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 14-15)

-- --Book Download Link--
http://www.mediafire.com/download/ydp77xzqb10chyd/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition.pdf --
डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --पुस्तक में108 प्रश्न नंबर ब्रेकिट में दिये गए हैं
https://archive.org/stream/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-published-book/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition#page/n0/mode/2up
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पुस्तक युनिकोड में चार पार्ट में इधर भी है
 http://108sawal.blogspot.in/2015/04/swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya.html

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