उनके इस प्रकार के स्वकथन विरूद्ध आचरण के बाद उनके इस उपदेश का क्या अर्थ रह जाता है-
‘‘नामस्मरण इस प्रकार करना चाहिए-जैसे ‘न्यायकारी’ ईश्वर का एक नाम है। इस नाम से जो इसका अर्थ है कि जैसे पक्षपात रहित होकर परमात्मा सबका यथावत न्याय करता है वैसे उसको ग्रहण कर न्याययुक्त व्यवहार सर्वदा करना, अन्याय कभी न करना। इस प्रकार एक नाम से भी मनुष्य का कल्याण हो सकता है।’’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादश., पृष्ठ 210)
‘इससे फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना है। जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होवे। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्ठ 120)
(12) जब न्यायकारी ईश्वर दुष्टों को क्षमा न करके दण्ड देता है तो दयानन्दजी ने ईश्वर का गुण ‘न्यायकारी’ स्वयं क्यों ग्रहण नहीं किया?
(13) अगर ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव के विपरीत चलते हुए उसकी स्तुति आदि करना दयानन्द जी की द‘ष्टि में भांड के समान व्यर्थ चेष्टा है तो क्या दयानन्द जी की स्तुति व उपासना आदि भी व्यर्थ और निष्फल ही थी?
(14) यदि दयानन्द जी परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव जैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव नहीं बना पाये थे तो क्या वह परमेश्वर को प्राप्त हो पाए होंगे जबकि उनके पास ‘सीढ़ी’ भी नहीं थी?
‘‘नामस्मरण इस प्रकार करना चाहिए-जैसे ‘न्यायकारी’ ईश्वर का एक नाम है। इस नाम से जो इसका अर्थ है कि जैसे पक्षपात रहित होकर परमात्मा सबका यथावत न्याय करता है वैसे उसको ग्रहण कर न्याययुक्त व्यवहार सर्वदा करना, अन्याय कभी न करना। इस प्रकार एक नाम से भी मनुष्य का कल्याण हो सकता है।’’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादश., पृष्ठ 210)
‘इससे फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना है। जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होवे। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्ठ 120)
(12) जब न्यायकारी ईश्वर दुष्टों को क्षमा न करके दण्ड देता है तो दयानन्दजी ने ईश्वर का गुण ‘न्यायकारी’ स्वयं क्यों ग्रहण नहीं किया?
(13) अगर ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव के विपरीत चलते हुए उसकी स्तुति आदि करना दयानन्द जी की द‘ष्टि में भांड के समान व्यर्थ चेष्टा है तो क्या दयानन्द जी की स्तुति व उपासना आदि भी व्यर्थ और निष्फल ही थी?
(14) यदि दयानन्द जी परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव जैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव नहीं बना पाये थे तो क्या वह परमेश्वर को प्राप्त हो पाए होंगे जबकि उनके पास ‘सीढ़ी’ भी नहीं थी?
http://www.mediafire.com/download/ydp77xzqb10chyd/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition.pdf --
डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --
https://archive.org/stream/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-published-book/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition#page/n0/mode/2up
--
पुस्तक युनिकोड में चार पार्ट में इधर भी है
http://108sawal.blogspot.in/2015/04/swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya.html
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