Wednesday, September 7, 2016

शाकाहार श्रेष्ठ क्यों माना जाए?

आवागमन की मान्यता शाकाहार के श्रेष्ठ और सात्विक प्रकृति का होने की भी जड़ काट देती है।
‘(प्रश्न) मनुष्य और पश्वादि के शरीर में जीव एक सा है वा भिन्न-भिन्न जाति के? 
    (उत्तर) जीव एक से हैं परन्तु पाप पुण्य के योग से मलिन और पवित्र होते हैं। (सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.170)
    ‘स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः। पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।।   
जो अत्यन्त तमोगुणी हैं वे स्थावर, वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं। (मनुस्मृति का श्लोक, सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.174)
‘शरीरजैः कर्मदोड्ढैर्याति स्थावरां नरः।
जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है उसको वृक्षादि स्थावर का जन्म... (मनुस्मृति का श्लोक, सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.172)
स्वामी जी के मतानुसार मनुष्य, पशु और पेड़-पौधों में एक ही जीव अपने पाप-पुण्य के कारण जन्म लेता रहता है। जो मनुष्य तमोगुणी होते हैं वे वनस्पति (सब्ज़ी), मछली और हिरन आदि बनकर पैदा होते हैं। जो लोग चोरी, व्यभिचार और हत्या जैसे जघन्य पाप करते हैं। वे आलू-गोभी बन जाते हैं। आलू, टमाटर, केले और नारियल आदि की यह देह मनुष्यों को उनके पाप की मलिनता के कारण प्राप्त होती है। चोरी, व्यभिचार और हत्या जैसे मलिन कर्मों के परिणामस्वरूप उत्पन्न देह को खाने के बाद वह खाने वाले के ्यरीर का अंग बनेगी और उसे भी मलिन बना देगी। रोज़ रोज़ इनका खाना मलिनता को बढ़ाता रहेगा और वे खाने वाले के मन में भी चोरी, व्यभिचार और हत्या की भावना जगा सकती हैं। कहावत ‘जैसा खाय अन्न वैसा हो जाय मन’ मशहूर ही है।
(45) सवाल यह उठता है कि किसी तमोगुणी जीव को आलू, गोभी, टमाटर और केले आदि की जो देह उसके पाप की मलिनता के कारण मिली है। उसे खाकर मनुष्य की तामसिक प्रवृत्ति पुष्ट होना तो समझ में आता है लेकिन सात्विक प्रवृत्ति को कैसे बल मिल सकता है?
(46) मनुस्मृति ने लौकी, कद्दू, मछली और हिरन, सबको एक ही श्रेणी ‘अत्यन्त तमोगुणी’ में रख दिया है। तब एक ही श्रेणी के एक जीव सब्ज़ी को खाकर उसे खाने वाले ख़ुद को पवित्र और श्रेष्ठ आहार ग्रहण करने वाला क्यों समझते हैं?
मछली और हिरन को मारने में उन्हें कष्ट होने की बात कही जा सकती है लेकिन वह तो पेड़ पौधों को भी होता है। मछली और हिरन आदि के कष्ट को तो कम किया जा सकता है लेकिन गाजर और चुक़न्दर के कष्ट को कम करने का कोई उपाय भी नहीं है।
(47) पशु-पक्षी को जब खाया जाता है तब उनमें प्राण और चेतना नहीं होती लेकिन जब आदमी गाजर खा रहा होता है तब वे जीवित होती हैं। गाजर और चुक़न्दर का रस वास्तव में उनके शरीर का रक्त है, जिसे शाकाहारी बड़े शौक़ से पीते हैं और ऐसा करके भी वे ख़ुद को पवित्र और श्रेष्ठ क्यों समझते रहते हैं?


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डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --पुस्तक में108 प्रश्न नंबर ब्रेकिट में दिये गए हैं
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सब्ज़ियां खाने से जीव को पीड़ा नहीं होती?

इतिहास की तरह जीव विज्ञान के विषय में स्वामी जी की मान्यताएं ठीक नहीं हैं। वह कहते हैं-
‘...हरित ‘शाक के खाने में जीव का मारना उनको पीड़ा पहुंचनी क्योंकर मानते हो? भला जब तुमको पीड़ा प्राप्त होती प्रत्यक्ष नहीं दिखती और जो दिखती तो हमको दिखलाओ।’ ( देखें सत्यार्थप्रकाश, द्वादशमसमुल्लास, पृष्‍ठ 369)
(42) आज पहली क्लास का बच्चा भी जानता है कि पेड़-पौधे जीवित वस्तुओं ;स्पअपदह जीपदहेद्ध में आते हैं। सब्ज़ी खाने से उन पर निवास करने वाले जीव भी मरते हैं। यह एक सच्चाई है। खाने के लिए गाजर-मूली को ज़मीन से खोद कर निकाला जाता है। तब वे भी मर जाती हैं और उन्हें पीड़ा भी होती है। इस वैज्ञानिक सत्य को झुठलाना ज्ञान कहा जायेगा अथवा अज्ञान?
दूसरों पर ऐतराज़ करने की जल्दी में स्वामी जी अपनी मान्यता भी भूल गए कि
‘स्वामी जी ने मनुष्य, पशु और वनस्पति आदि में जीव एक ही माना है।’ ( देखें सत्यार्थप्रकाश, नवम., पृ.170)
यह बात मान ली जाए तो मूली काटना भी आदमी की गर्दन काटने के बराबर का ही जुर्म ठहरता है और दोनों कामों पर एक ही धारा लगनी चाहिए और एक ही सज़ा मिलनी चाहिए। पेड़-पौधों पर अनगिनत सूक्ष्म जीवाणु भी वास करते हैं। सब्ज़ियां खाने से वे भी मरते हैं। मक्खी और मच्छर के क़त्ल पर भी वही सज़ा मिलने लगे जो कि आदमी को क़त्ल करने पर मिलती है तो आर्य समाजी भाई स्वयं ही कहने लगेंगे कि आवागमन नहीं होता।
(43) अगर मनुष्य, पशु और सब्ज़ी में जीव एक ही है तो फिर उन सबके जीवन का अंत करना बराबर का अपराध क्यों नहीं माना जाता?
(44) क्या ऐसा करके मनुष्य समाज एक मिनट के लिए भी ज़िन्दा रह सकता है?
आवागमन की मान्यता के अनुसार जो सब्ज़ियाँ और छोटे बड़े जीव अब नज़र आ रहे हैं, ये सब पहले कभी मनुष्य हुआ करते थे। वे मनुष्य ही मर कर अपने पाप भुगतने के लिए इन योनियों में पैदा हो गए हैं। केवल रूप रंग बदला है, इनमें आत्मा वही माननी पड़ेगी। ऐसे में यह डर बना रहता है कि जिस आलू को हम छील रहे हैं, कहीं यह हमारे माता-पिता ही न हों?
    हमारे माता पिता न भी हों तब भी वे किसी न किसी मनुष्य के माता पिता या बच्चे तो हैं ही, यह निश्चित है। आवागमन को माना जाए तो शाकाहारी भी आदमख़ोर ठहरते हैं। इस अपराध बोध से आदमी तभी बच सकता है, जबकि वह आवागमन को असत्य मान ले।

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राजाओं के इतिहास की जानकारी भी ग़लत

स्वामी जी को ऋषियों के प्राचीन इतिहास की तो क्या आर्य राजाओं के नवीन इतिहास की भी सही जानकारी नहीं थी। उन्होंने सुल्तान शहाबुद्दीन ग़ौरी का राजा यशपाल से लड़कर दिल्ली पर राज्य करना बताया है और पृथ्वीराज चैहान के राज्य को इस युद्ध से 74 वर्ष  पहले ही समाप्त दिखाया है। देखिए उनकी बनाई तालिका और उनकी टिप्पणी-
आर्य राजा    वर्ष     मास    दिन      
1 पृथिवीराज    12    -2    -19      
2 अभयपाल    14    -5    -17      
3 दुर्जनपाल          -11    -4    -14      
4 उदयपाल          -11    -7    -3      
5 यशपाल          -36    -4    -27     
    ‘राजा यशपाल के ऊपर सुल्तान शाहबुद्दीन गौरी गढ़ गजनी से चढ़ाई करके आया और राजा यशपाल को प्रयाग के किले में संवत् 1249 साल में पकड़ कर कैद किया। पश्चात् ‘इन्द्रप्रस्थ’ अर्थात दिल्ली का राज्य आप (सुल्तान शाहबुद्दीन) करने लगा।’ (देखें सत्यार्थप्रकाश, एकादशमसमुल्लास, पृ.274)
(41) क्या स्वामी जी द्वारा दी गई इस जानकारी को सही माना जा सकता है?
    हक़ीक़त यह है कि शाहबुद्दीन ग़ौरी 1149 ई. में पैदा हुआ और 1205 ई. में उसकी मृत्यु हुई। पृथ्वीराज चैहान 1149 ई.-1192 ई. में तराइन की दूसरी जंग में शाहबुद्दीन ग़ौरी से हार कर क़ैद हुआ और 1192 ई. में क़त्ल किया गया।


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ऋषियों के इतिहास की जानकारी आवश्यक है

सच्चा वेदार्थ जानने के लिए वेदमंत्रों की रचना करने वाले ‘कवि’ ऋषियों के इतिहास की जानकारी आवश्यक है। आज भी किसी कविता का सही अर्थ जानने के लिए उसके रचने वाले कवि के जीवन की घटनाओं के बारे में जानना ज़रूरी माना जाता है। कवि जिन घटनाओं को देखता है या जो अनुभूत करता है, अपने काव्य में उन्हीं का वर्णन करता है। अमीर ख़ुसरो, अल्लामा इक़बाल और रविन्द्र नाथ टैगोर के जीवन की घटनाओं को जाने बिना उनके काव्य का अर्थ किया जाएगा तो बहुत से स्थानों पर अर्थ का अनर्थ होना निश्चित है। वेदमंत्रों में विश्वामित्र, वसिष्ठ, घोड्ढा काक्षीवती, वभ्र, दुवस्यु और यम-यमी आदि जिन कवियों के नाम आए हैं। उनके जीवन का इतिहास जाने बिना उनके काव्य का सही अर्थ जानना संभव नहीं है।
वेद की उत्पत्ति कब और कैसे हुई?, इस रहस्य को सुलझाने के लिए भी ऋषियों का इतिहास ही काम आता है। नाभिकमल पर वास करने वाले ब्रह्मा जी और विश्वामित्र के पुरातन इतिहास को जाने बिना इसे हल करना संभव नहीं है। स्वामी जी ने वेदों में इतिहास न मानकर उनकी उत्पत्ति तक पहुंचने का एक मार्ग बंद ही कर दिया है।
    स्वामी दयानन्द जी को इन ऋषियों के प्राचीन इतिहास के विषय में कोई प्रामाणिक जानकारी न थी। उनके द्वारा वेदार्थ में ग़लती करने का यह एक बड़ा कारण है।




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वेदमंत्रों की रचना ऋषियों ने की

    तैत्तिरीय ब्राह्मण भी वेद के सत्यवचन को प्रमाणित करते हुए कहता है-
    यामृषयो मन्त्रकृतो मनीषिणः
    मन्त्र की रचना मनीषी ऋषियों ने की। (तै. ब्रा. 2/8/8/5)




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वेदों में प्राचीन व नवीन ऋषियों के मंत्र संकलित हैं

ये च ऋड्ढयो य च नूत्ना इन्द्र ब्रह्माणि जनयन्त विप्राः।

अस्मे ते सन्तु सख्या शिवानि यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।।9।।
    हे इन्द्रदेव! प्राचीन एवं नवीन ऋषियों द्वारा रचे गए स्तोत्रों से स्तुत्य होकर आपने जिस प्रकार उनका कल्याण किया, वैसे ही हम स्तोताओं का भी मित्रवत् कल्याण करें। आप कृपा करके कल्याणकारी साधनों से हम सबकी सुरक्षा करें।
(ऋग्वेद 7/22/9; अनुवादःपं. श्रीराम शर्मा आचार्य, मथुरा से प्रकाशित, सन् 2005 ई.)
    ‘प्राचीन एवं नवीन ऋषियों द्वारा रचे गए स्तोत्रों’ कहकर वेदों ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है कि वेदमंत्रों की रचना ऋषियों ने की और यह काम कई पीढ़ियों तक चलता रहा।
    स्वामी दयानन्द जी ने वेदों को स्वतःप्रमाण माना है और वेद स्वयं को ऋषियों की रचना बता रहे हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि वेद का यह अनुवाद एक ऐसे महापंडित ने किया है, जो बहुत वर्षों तक आर्यसमाज का प्रतिनिधित्व करते रहे लेकिन जब उन्होंने स्वयं वेद का अनुवाद किया तो उन्होंने स्वामी जी की ग़लत मान्यताओं का अनुकरण न किया। 

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वेदों में नए नए मंत्र

‘इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि समय-समय पर वेदों के नए नए मंत्र बनते रहे हैं और वे पहले बने संग्रहों (संहिताओं अथवा वेदों) में मिलाए जाते रहे हैं। ख़ुद वेदों में ही इस बात के प्रमाण मिल जाते हैं, यथाः
    अथा सोमस्य प्रयतीयुवम्यामिन्द्राग्नी स्तोमं जनयामि नव्यम्.  -1,109,2
    अर्थात हे इंद्र और अग्नि, तुम्हारे सोमप्रदानकाल में पठनीय एक नया स्तोत्र रचता हूं.
    स नो नव्येभिर्वृड्ढकर्मन्नुक्थैः पुरां दर्तः पायुभिः पाहि शग्मैः  -ऋग्वेद 1,130,10
    अर्थात जलवर्षक और नगर विदारक इंद्र, हमारे नए मंत्र (स्तोत्र) से संतुष्ट हो कर विविध प्रकार से रक्षा और सुख देते हुए हमें प्रतिपालित करो.
    तदस्मै नव्यमंगिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते  -ऋग्वेद 2,17,1
    अर्थात हे स्तोताओ, तुम लोग अंगिरा के वंशजों की तरह नई स्तुति द्वारा इंद्र की उपासना करो.
    अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया  -ऋग्वेद 4,16,21
    अर्थात हे हरि विशिष्ट इंद्र हम तुम्हारे लिए नए स्तोत्र बनाते हैं.
    यही शब्द अविकल रूप से 4/17/21; 4/19/11; 4/20/11; 4/21/11; 4/22/11; 4/23/11 और 4/24/11 में भी मिलते हैं।’
    इस तरह के और भी कई मंत्र हैं जिनका उल्लेख करते हुए प्रख्यात वेद मनीषी  डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात लिखते हैं-
    ‘‘स्पष्ट है कि इन स्तोत्रों व मंत्रों के रचयिता साधारण मानव थे, जिन्होंने पूर्वजों द्वारा रचे गए मंत्रों के खो जाने पर या उन के अप्रभावी सिद्ध होने पर या उन्हें परिष्कृत करने या अपनी नई रचना रचने के उद्देश्य से समयसमय पर नए मंत्र रचे. अपनी मौलिकता व अपने प्रयत्नों का विशेष उल्लेख अपनी रचनाओं में कर के उन्होंने अपने को देवता विशेष के अनुग्रह को प्राप्त करने के विशिष्ट पात्र बनाना चाहा है, अन्यथा, वे ‘अपने नए रचे स्तोत्रों’-इस वाक्यांश का प्रयोग, शायद, न करते.’’ (क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म?, पृष्ठ 464 व 465, लेखकः डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात’, प्रकाशक ः विश्व विजय प्रा. लि., एम-12, कनाट सरकस, नई दिल्ली)


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