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Tuesday, September 6, 2016

अग्नि के विषय में भी स्वामी जी का मत ग़लत है

अग्नि 3 द्वयणुक अर्थात 6 अणुओं के मिलने से नहीं बनती। जैसा कि स्वामी ने कहा है। उन्होंने जीवन भर हवन किया लेकिन कभी 6 अणु मिलाकर आग नहीं जलाई और न ही कोई आर्य विद्वान आज ऐसा कर सकता है। 
विज्ञान के अनुसार अग्नि दहनशील पदार्थों का तीव्र आक्सीकरण है। जिससे ऊष्मा, प्रकाश और कार्बन डाई आॅक्साईड जैसे अन्य अनेक रासायनिक प्रतिकारक उत्पाद उत्पन्न होते हैं। अग्नि को बुझाना हो तो ईंधन और आक्सीजन में से किसी एक को अलग कर दिया जाता है। 
यदि स्वामी जी के मत को मान लिया जाता तो देश की सारी उन्नति ठप्प हो जाती। उनके विचार आज प्रासंगिक नहीं रह गये हैं। समय ने उन्हें रद्द कर दिया है। जिन लोगों को म्लेच्छ कहकर हेय समझा गया, देश के वैज्ञानिकों ने उन्हीं का अनुकरण करके उन्नति की है।
(32) स्वामी जी स्थूल अग्नि के विषय में सही ज्ञान नहीं रखते थे। ऐसे में ईश्वर और आत्मा जैसे सूक्ष्म तत्व के विषय में उनकी जानकारी का विश्वास कैसे किया जा सकता है? 
(33) यदि प्रकृति के विषय में अभारतीयों का ज्ञान सत्य और श्रेष्‍ठ हो सकता है तो फिर ईश्वर और जीव के विषय में क्यों नहीं हो सकता? 


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डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --पुस्तक में108 प्रश्न नंबर ब्रेकिट में दिये गए हैं
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पुस्तक युनिकोड में चार पार्ट में इधर भी है
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आकाश में सर्दी-गर्मी होती है, सर्दी से परमाणु जम जाते हैं, भाप से मिलकर किरण बलवाली होती है?

‘... क्योंकि आकाश के जिस देश में सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी की छाया रोकती है, उस देश में शीत भी अधिक होती है। ... फिर गर्मी के कम होने और शीतलता के अधिक होने से सब मूर्तिमान पदार्थो के परमाणु जम जाते हैं। उनको जमने से पुष्टि होती है और जब उनके बीच में सूर्य की तेजोरूप किरणें पड़ती हैं तो उनमें से भाप उठती है। उनके योग से किरण भी बलवाली होती है।’ (ऋग्वेदादिभाष्‍यभूमिका पृष्‍ठ 145 व 146)

(27) सर्दी-गर्मी धरती पर होती है आकाश में नहीं और वह भी पृथ्वी द्वारा सूर्य के प्रकाश को रोकने की वजह से नहीं होती। पृथ्वी की छाया भी किसी अन्य ग्रह पर नहीं पड़ती।

(28) और न ही सर्दी बढ़ने से सब चीज़ों के परमाणु जमते हैं। टुण्ड्रा प्रदेश की तेज़ सर्दी में भी सब चीज़ों के परमाणु नहीं जमते। पता नहीं परमाणु के सम्बन्ध में स्वामी जी की कल्पना क्या है?

(29) भाप से मिलकर प्रकाश को भला क्या बल मिलेगा? 

(30) यह वेदों का कथन है या स्वयं स्वामी जी की कल्पना?


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डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --
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स्वामी दयानंद जी की कल्पना और सौर मण्डल


इसलिए एक भूमि के पास एक चन्द्र और अनेक चन्द्र अनेक भूमियों के मध्य में एक सूर्य रहता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, पृष्ठ 156)
यह बात भी पूरी तरह गलत है। स्वामी जी ने सोच लिया कि जैसे पृथ्वी का केवल एक उपग्रह ‘चन्द्रमा’ है। इसी तरह अन्य ग्रहों का उपग्रह भी एक-एक ही होगा। The Wordsworth Encyclopedia 1995 के अनुसार ही मंगल के 2, नेप्च्यून के 8, बृहस्पति के 16 व शानि के 20 उपग्रह खोजे जा चुके थे। आधुनिक खोजों से इनकी संख्या में और भी इज़ाफा हो गया ।

सन् 2004 में अन्तरिक्षयान वायेजर ने दिखाया कि शनि के उपग्रह 31 से ज़्यादा हैं। (द टाइम्स ऑफ इण्डिया, अंक 2-07-04, मुखपृष्ठ) 

इसके बाद की खोज से इनकी संख्या में और भी बढ़ोतरी हुई है। अंतरिक्ष अनुसंधानकर्ताओं ने ऐसे तारों का पता लगाया है जिनका कोई ग्रह या उपग्रह नहीं है।

PSR  19+16 नामक प्रणाली में एक दूसरे की परिक्रमा करते हुए दो न्यूट्रॉन तारे हैं।’ (समय का संक्षिप्त इतिहास, पृष्‍ठ 96, ले. स्टीफेन हॉकिंग संस्करण 2004, प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन प्रा. लि0, नई दिल्ली-2)

‘खगोलविदों ने ऐसी कई प्रणालियों का पता लगाया है, जिनमें दो तारे एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं। जैसे CYGNUS X-1, सिग्नस एक्स-1’ (पुस्तक उपरोक्त, पृष्‍ठ 100)

(26) वेदों में विज्ञान सिद्ध करने के लिए स्वामी जी ने जो नीति अपनाई है उससे वेदों के प्रति संदेह और अविश्वास ही उत्पन्न होता है। क्या इससे खुद स्वामी जी का विश्वास भी ख़त्म नहीं हो जाता है ?


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भांड के समान स्तुति?

उनके इस प्रकार के स्वकथन विरूद्ध आचरण के बाद उनके इस उपदेश का क्या अर्थ रह जाता है-
‘‘नामस्मरण इस प्रकार करना चाहिए-जैसे ‘न्यायकारी’ ईश्वर का एक नाम है। इस नाम से जो इसका अर्थ है कि जैसे पक्षपात रहित होकर परमात्मा सबका यथावत न्याय करता है वैसे उसको ग्रहण कर न्याययुक्त व्यवहार सर्वदा करना, अन्याय कभी न करना। इस प्रकार एक नाम से भी मनुष्‍य का कल्याण हो सकता है।’’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादश., पृष्ठ 210)
‘इससे फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना है। जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होवे। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्ठ 120)
(12) जब न्यायकारी ईश्वर दुष्टों को क्षमा न करके दण्ड देता है तो दयानन्दजी ने ईश्वर का गुण ‘न्यायकारी’ स्वयं क्यों ग्रहण नहीं किया?
(13) अगर ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव के विपरीत चलते हुए उसकी स्तुति आदि करना दयानन्द जी की द‘ष्टि में भांड के समान व्यर्थ चेष्टा है तो क्या दयानन्द जी की स्तुति व उपासना आदि भी व्यर्थ और निष्फल ही थी?
(14) यदि दयानन्द जी परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव जैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव नहीं बना पाये थे तो क्या वह परमेश्वर को प्राप्त हो पाए होंगे जबकि उनके पास ‘सीढ़ी’ भी नहीं थी?
   

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Monday, September 5, 2016

स्वामी जी की असफलता का कारण


माता पिता आदि को छोड़कर और झूठ बोलकर सन्यास लेने वाले एक उपदेशक के मत की पोल खोलते हुए स्वामी जी कहते हैं-
‘देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ.251)
स्वामी जी को उनके पिता जी ने ‘कुल को कलंक लगाने वाला’ और ‘निर्मोही’ आदि जो कुछ कहा है। वह तो स्वामी जी ने बता दिया है लेकिन धोखा देकर पुनः भाग जाने पर जो कुछ कहा होगा, उसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। पिता का विश्वास भंग करने वाले को विश्वस्त सेवक न मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं है। स्वामी जी के अन्तिम दिनों के दुखद हालात का वर्णन इस प्रकार मिलता है-
    ‘हमने सुना है कि स्वामी जी पहरे वालों और दारोगा आदि पर जब ताड़ना करते थे तो ये स्वामी जी के सामने हाथ जोड़ ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहते थे, पश्चात् परस्पर हंसते थे। स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
(1) माँ-बाप को जीते जी ही मार डालने वाला आदमी समाज को जीने की सही राह कैसे दिखा सकता है?
(2) स्वामी जी ने सत्य की खोज का आरम्भ ही असत्य से किया तो वह असत्य के सिवा और क्या पा सकते थे?
जिस काम की शुरूआत असत्य और धोखाधड़ी से की जाती है, उसमें असफलता ही मिलती है। अपनी असफलता और उसके कारण के विषय में स्वामी जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि
‘मैंने अनेक पाठशालाएं खोलीं। पंडितों को शिष्य बनाया। पर वे लोग मेरे सामने वेद मार्ग पर चलते हैं। तत्पश्चात् पौराणिक बन जाते हैं। वे मेरे प्रतिकूल ताना-बाना बुनते हैं। मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा। 
इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था। माँ की ममता का मैंने ध्यान नहीं किया। पितृऋण भी नहीं उतार सका। यही ऐसे कर्म हैं, जो मुझे सच्चे शिष्य मिलने में बाधक हैं।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121)

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स्वामी जी के विषय में उनके पिताजी की राय

स्वामी जी ने अपने द्वारा लिखे गए जीवन चरित्र में बताया है कि जब वह घर से चुपके से निकल आए थे तो उनके पिता जी ने उन्हें बहुत तलाश किया और आखि़रकार उन्होंने स्वामी जी को सिद्धपुर के मेले में पकड़ लिया था। स्वामी जी के शब्दों में-
‘एक दिन उस शिवालय में जहां मैं उतरा था प्रातःकाल एकाएक मेरे बाप और चार सिपाही मेरे सम्मुख आ खड़े हुए। उस समय वह ऐसे क्रोध में भरे हुए थे कि मेरी आंख उनकी ओर नहीं होती थी। जो उनके जी में आया सो कहा और मुझे धिक्कारा कि तूने सदैव को हमारे कुल को दूड्ढित किया और तू हमारे कुल को कलंक लगाने वाला उत्पन्न हुआ।
मेरे मन में आतंक बैठ गया कि कदाचित् मेरी कुछ दुदर्शा करेंगे। इस डर से मैंने उठकर उनके पांव पकड़ लिये। मेरा पिता मुझ पर बहुत क्रुद्ध हुआ।
    पिता के डर से असत्य भाड्ढण, परन्तु ध्यान फिर भी भागने में रहा- मैंने प्रार्थना की कि मैं धूर्त लोगों के बहकावे में आकर इस ओर निकल आया और अत्यन्त दुःख पाया। आप शान्त हों, मेरे अपराधों को क्षमा कीजिये। यहां से मैं घर आने ही को था, अच्छा हुआ कि आप आ गये हैं। आपके साथ चलने में प्रसन्न हूं। इस पर भी उनकी कोपाग्नि शान्त न हुआ और झपट कर मेरे कुर्ते की धज्जियां उड़ा दीं और तूंबा छीन कर बड़े जोर से धरती पर दे मारा और सैकड़ों प्रकार से मुझे दुर्वचन कहे और नवीन श्वेत वस्त्र धारण कराकर जहां ठहरे थे वहां मुझ को ले गये और वहां भी बहुत कठिन कठिन बातें कहकर बोले कि तू अपनी माता की हत्या किया चाहता है। मैंने कहा कि अब मैं चलूंगा तो भी मेरे साथ सिपाही कर दिये और उन्हें कह दिया कि कहीं क्षण भर भी इस निर्मोही को पृथक् मत छोड़ो और इस पर रात्रि को भी पहरा रखो परन्तु मैं भागने का उपाय सोचता था और अपने निश्चय में वैसा ही दृढ़ था जैसे कि वे अपने यत्न में संलग्न थे। मुझ को यही चिन्ता थी और इसी घात में था कि कोई अवसर भागने का हाथ लगे।
    ...दैवयोग से तीसरी रात्रि के तीन बजे पीछे पहरे वाला बैठा बैठा सो गया। मैं उसी समय वहां से लघुशंका के बहाने से भागकर आध कोस पर एक बगीचे के मन्दिर के शिखर में एक वटवृक्ष के सहारे से चढ़कर जल का लोटा लेकर छुपकर बैठ गया।...जब अन्धकार हुआ तब रात के सात बजे उस मन्दिर से नीचे उतर कर सड़क छोड़ किसी से पूछ वहां से दो कोस एक ग्राम था; वहां जाकर ठहरा और प्रातःकाल वहां से चला।’  (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 42)

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