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Friday, September 9, 2016

क्या दुखी मनुष्य पिछले जन्म का पापी है?

समाज में आवागमन की ग़लत धारणा आम हो चुकी है। इस कारण लोग दुख उठाने वाले को कितनी बुरी नज़रों से देखते हैं बल्कि अच्छे आदमी ख़ुद अपनी नज़र में भी गिर जाते हैं और अपनी नज़र से गिरे हुए को कौन उठा सकता है ?
    हक़ीक़त यह है कि दुनिया ईश्वर की पाठशाला है। जहां वह मनुष्यों का शिक्षण और प्रशिक्षण विभिन्न माध्यमों से स्वयं कर रहा है। वह मनुष्यों का परीक्षण भी करता है और उन्हें दुनिया में सज़ा और ईनाम भी देता है। परलोक में वह अपने न्याय को पूर्ण करेगा।
    शिक्षण-प्रशिक्षण और परीक्षण में विद्यार्थियों को कष्ट होता ही है। यह स्वाभाविक है। जो विद्यार्थी अच्छे होते हैं। वे नियमों का पालन करके शिक्षा ग्रहण करते हैं और कठिन परीक्षा देते हैं और सफल होते हैं, उन्हें भी कष्ट होता है और जो नियमों का उल्लंघन करते हैं और परीक्षा में फ़ेल हो जाते हैं, उन बुरे विद्यार्थियों को भी कष्ट होता है। दुख और कष्ट सबको होता है लेकिन दोनों के कष्ट का कारण अलग अलग होता है। दुनिया में भी अच्छे और बुरे हरेक आदमी को कष्ट होता है लेकिन आवागमन के कारण अच्छे आदमी को कष्ट उठाता देखकर उसे भी बुरा समझ लिया जाता है।
    दुनिया में एक अच्छा आदमी बुरे लोगों के खि़लाफ़ संघर्ष करता है। बुरे लोग उसे जीवन भर कष्ट देते हैं और फिर उसकी हत्या कर देते हैं या उसे धोखे से ज़हर खिला देते हैं। आवागमन को मानने वाले उसके बारे में यह सोचते हैं कि यह बहुत बुरी मौत मरा है। इसके पूर्व जन्म के पापों का फल ही अब इसके सामने आया है। ज़रूर इसने पिछले जन्म में इन लोगों की हत्या की होगी, जिन्होंने इस जन्म में इसे क़त्ल किया है। लोगों के सामने यह सुधारक होने का ढोंग कर रहा था लेकिन ईश्वर ने न्याय करके इसकी असलियत सबके सामने खोल दी।
(57) क्या लोगों का ऐसा सोचना सही कहलाएगा ?
    स्वामी दयानन्द जी की तरह आदिशंकराचार्य को भी ज़हर देकर मार डालना बताया जाता है। दोनों वैदिक आचार्य आवागमन के प्रचारक थे। बडे़ भयानक कष्ट उठाने के बाद उनके प्राण निकले। स्वामी जी ने कहा है-
    ‘क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है।’ (सत्यार्थप्रकाश, नवम., पृ.165)
(58) ज़रा सोचिए कि अगर दुख का कारण पापाचरण को माना जाए तो स्वामी ने जो दुख भोगे उनका कारण क्या माना जाएगा?

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डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --पुस्तक में108 प्रश्न नंबर ब्रेकिट में दिये गए हैं
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नपुंसक क्यों पैदा होते हैं?

(53) किस कर्म के फल में नपुंसक लोग पैदा होते हैं?,  ( पी डी एफ mediafire और  archive  से  प्राप्त कर सकते हैं)
इस सवाल का जवाब स्वामी जी भी न दे पाए। नपुंसक गर्भ का कारण बताते हुए उन्हें कर्मफल की अवधारणा से हटना पड़ा। वह कहते हैं-
    ‘जो स्त्री के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो स्त्री और पुरूष के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो  पुरूष के शरीर में प्रवेश करता है। और नपुंसक गर्भ की स्थिति समय स्त्री पुरूष के शरीर में सम्बन्ध करके रज वीर्य के बराबर होने से होता है।’ (सत्यार्थ.,पृ.171)
    स्वामी जी ने औरत और मर्द का शरीर मिलने के लिए तो जीव के कर्म को ज़िम्मेदार माना है लेकिन नपुंसक शरीर मिलने के लिए जीव के कर्म के बजाय पति-पत्नी के रज-वीर्य को ज़िम्मेदार माना है। ऐसा मानना कर्मफल की अवधारणा के विपरीत तो है ही, जीव विज्ञान के प्रमाणित तथ्य के विपरीत भी है।
स्वामी जी ने यह भी नहीं बताया है कि किन कर्मों को करने से नर शरीर और किन कामों को करने से नारी शरीर मिलता है। ताकि अगर किसी को वह शरीर लेकर पैदा होना हो तो वह उस तरह के काम कर सके। वैसे आज इसकी ज़रूरत नहीं बची है कि मनोवाँछित लिंग पाने के लिए लोग अगले जन्म का इन्तेज़ार करें।
स्वामी जी के ज़माने के मुक़ाबले आज साइंस और टेक्नोलॉजी इस मक़ाम पर आ गई है कि औरतें और मर्द अपना लिंग अपनी मर्ज़ी के अनुसार बदल रहे हैं। माइकल जैक्सन ने तो अपना लिंग दो बार बदला था। आज बायो-टेक्नोलॉजी के ज़रिए गर्भ में ही बच्चे का लिंग, रूप-रंग और क़द वग़ैरह निश्चित करना संभव है। यह सब पूर्वजन्म के कर्मफल के विचार को निरर्थक सिद्ध करने के लिए काफ़ी है।

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Wednesday, September 7, 2016

स्वामी जी की प्रार्थना क्यों पूरी नहीं हुई?

स्वामी जी ने अपना वेदभाष्य आरंभ करने से पहले परमेश्वर से इन शब्दों में प्रार्थना की थी-
    ‘और आपकी कृपा के सहाय से सब विघ्न हम से दूर रहें कि जिससे इस वेदभाष्य के करने का हमारा अनुष्ठान सुख से पूरा हो। इस अनुष्ठान में हमारे शरीर में आरोग्य, बुद्धि, सज्जनों का सहाय, चतुरता और सत्यविद्या का प्रकाश सदा बढ़ता रहे। इस भद्रस्वरूप सुख को आप अपनी सामथ्र्य से हमको दीजिए, जिस कृपा के सामथ्र्य से हम लोग सत्य विद्या से युक्त जो आपके बनाए वेद हैं उनके यथार्थ अर्थ से युक्त भाष्य को सुख से विधान करें। सो यह वेदभाष्य आपकी कृपा से संपूर्ण हो के सब मनुष्यों का सदा उपकार करने वाला हो’
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ईश्वरप्रार्थनाविषय, पृष्ठ 5)
1. ईश्वर ने स्वामी जी की यह प्रार्थना स्वीकार नहीं की।
2. उनका वेदभाष्य सुख से तो क्या दुख के साथ भी पूरा नहीं हुआ।
3. इस अनुष्ठान में लगने के बाद उन्हें आरोग्य आदि भी नहीं मिला, उल्टे ईश्वर ने उन्हें खाट पकड़ा दी और उनके प्राण ले लिए।
4. वह और उनके शिष्य स्वामी जी की मान्यतानुसार वेद के यथार्थ अर्थ का सुख से विधान न कर सके।
5. ईश्वर की कृपा न होने से उनके द्वारा वेदभाष्य संपूर्ण न हुआ। जिसकी प्रार्थना स्वामी जी ने की थी।
इसका कारण स्वामी जी की मान्यताओं में ढूंढने की कोशिश की गई तो यह लिखा हुआ मिलता है-
    ‘देवास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
    न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्।।मनु.।।
    जो दुष्टाचारी अजितेन्द्रिय पुरूष है उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते। (सत्यार्थप्रकाश, तृतीयसमुल्लास, पृ.34)

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बहुत अधिक उन्नति के बाद मनुष्य को वेद मिले

वेदों के अध्ययन से यह पता चलता है कि आय्र्यावत्र्त देश के मनुष्य बहुत अधिक उन्नति कर चुके थे। वे संस्कृत भाषा बोलने लगे थे। वे व्याकरण और स्वरों को जानते थे। वे काव्य को समझने लगे थे। उन्होंने रथ बनाना सीख लिया था। उन्होंने घोड़े व गाय आदि पालना सीख लिया था। उन्होंने गाय आदि का दूध निकालने व उससे घी निकालने की तकनीक विकसित कर ली थी। वे हवन करते थे। उन्होंने मुर्दों को जलाना भी शुरू कर दिया था। इसका मतलब यह है कि अग्नि की खोज, पहिये के अविष्कार और घी के निर्माण के बाद ही आर्यों ने वेदों को प्राप्त किया, उससे पहले नहीं अन्यथा वे वैदिक संस्कारों को संपन्न न कर पाते। जिनका वर्णन वेदों में मिलता है।
    वेद मिलने से पहले ही आर्य क़िले व बाँध बनाना जान गए थे। उन्होंने खेती करना व व्यापार करना भी सीख लिया था। उन्होंने सोने के सिक्के बनाना सीख लिया था। उनका व्यापार मुद्रा विनिमय के स्तर तक आ पहुंचा था। वे लोग अपना राजा चुनते थे। वे हर तरह से समृद्ध नगरों में रहते थे। उन्होंने लकड़ी, पत्थर और धातुओं से हथियार बनाने और उन्हें चलाने की कला भी सीख ली थी। उनकी अपनी सेना थी। उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी थे। वे युद्ध में असुर आदि शत्रुओं को मार डालते थे। वे बीमारियों की चिकित्सा करने में प्रवीण थे। उन्हें दवाओं का अच्छा ज्ञान था। वे भौतिक व रसायन विज्ञान में प्रवीण थे। इन बातों को सनातनी और आर्य विद्वान दोनों ही मानते हैं।
स्वामी दयानंद जी के अनुसार तो वेदों में विमान और तार विद्या (टेलीग्राम) का भी वर्णन है। (देखें ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नौविमानादिविद्याविषयः, पृष्ठ 149 व तारविद्यामूलविषयः, पृष्ठ 155)
इसका अर्थ यह हुआ कि जिस समय आर्यों को वेद मिले उस समय तक वे विमान, टेलीग्राम यंत्र और बिजली बनाने के साद्दन तैयार कर चुके थे। इस तरह वेदों को प्राप्त करने वाली आर्य सभ्यता एक अति उन्नत सभ्यता के रूप में सामने आती है।
स्वामी जी के अनुसार परमेश्वर ने वेद में आर्यों की तोप और बंदूक़ों को भी स्थिर रहने का आशीर्वाद दिया है।
‘हे मनुष्यो! तुम लोग सब काल में उत्तम बल वाले हो। किन्तु तुम्हारे (आयुधा) अर्थात् आग्नेयास्त्रादि अस्त्र और (शतघ्नी) तोप (भुशुण्डी) बन्दूक, धनुषबाण और तलवार आदि शस्त्र सब स्थिर हों।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ईश्वरस्तुति., पृ.114)
इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि जिस समय ईश्वर ने वेद में आर्यों को अपना आशीर्वाद दिया। उस समय आर्यों की सेना के पास तोप और बंदूक़ें मौजूद थीं। इतनी उन्नति सौ दो सौ वर्ष में संभव नहीं है। इसके लिए हज़ारों वर्ष का समय चाहिए। अतः मनुष्य की उत्पत्ति के हज़ारों वर्ष बाद मनुष्य को वेद प्राप्त होना सिद्ध होता है न कि सृष्टि के आदि में। जैसा कि स्वामी जी की मान्यता है।
वेद अपना काल स्वयं ही बता रहे हैं लेकिन उसे समझने में स्वामी दयानंद जी पूरी तरह असफल रहे। वास्तव में स्वामी जी न वेदों का काल समझ पाए और न ही वास्तविक वेदार्थ। स्वामी जी वेदों का वास्तविक काल और उनका अर्थ नहीं जानते थे लेकिन फिर भी उन्होंने यह दावा किया है कि
‘यह भाष्य प्राचीन आचाय्र्यों के भाष्यों के अनुकूल बनाया जाता है। परन्तु जो रावण, उवट, सायण और महीधर आदि ने भाष्य बनाये हैं, वे सब मूलमन्त्र और ऋषिकृत व्याख्यानों से विरुद्ध हैं। मैं वैसा भाष्य नहीं बनाता।’
‘इस में कोई बात अप्रमाण व अपनी रीति से नहीं लिखी जाती।’
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, भाष्यकरणशंकासमाधान विषयः, पृष्ठ 251)

(40) स्वामी जी का दावा ग़लत था। उनके वेदार्थ में ग़लतियाँ देखने वाले वेदों को ईश्वर की वाणी कैसे मान पाएंगे?

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आर्य ज्योतिषियों का फलित भी ग़लत और गणित भी ग़लत

स्वामी जी ने ज्योतिष के फलित को ग़लत और उसके गणित को सही माना है। वह ज्योतिष की काल गणना पर विश्वास करके धोखा खा गए। बाद के वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला कि जगत और मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में आर्य ज्योतिषियों की काल गणना बिल्कुल ग़लत है। स्वामी जी कह रहे हैं कि आर्यों ने एक एक क्षण का हिसाब ठीक से सुरक्षित रखा है लेकिन हक़ीक़त यह है कि आर्यों ने सृष्टि की उत्पत्ति की जो काल गणना की है, उसमें 11 अरब वर्ष  से ज़्यादा की गड़बड़ है।

    वास्तव में स्वामी जी को पता नहीं था कि सितारे और ग्रह कैसे बनते हैं और उन्हें बनने में कितने अरब वर्ष का काल लगता है ?, अपनी ओर से उन्होंने लंबी से लंबी कल्पना कर ली लेकिन सृष्टि की आयु उससे भी कई गुना ज़्यादा निकली और उनका मत झूठा सिद्ध हो गया।



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स्वामी जी सृष्टि की उत्पत्ति का काल जानने में भी असफल रहे

‘चारों वेद सृष्टि के आदि में मिले।’ स्वामी जी ने बिना किसी प्रमाण के केवल यह कल्पना ही नहीं की बल्कि उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्तिविषयः, पृष्ठ 16 पर यह भी निश्चित कर दिया कि वेदों और जगत की उत्पत्ति को एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष हो चुके हैं।
    स्वामी जी इस काल गणना को बिल्कुल ठीक बताते हुए कहते हैं-
    ‘...आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेके एक वर्ष पर्यन्त भी काल की सूक्ष्म और स्थूल संज्ञा बांधी है।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 17)
    ‘जो वार्षिक पंचांग बनते जाते हैं इनमें भी मिती से मिती बराबर लिखी चली आती है, इसको अन्यथा कोई नहीं कर सकता।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 19)
    यह बात सृष्टि विज्ञान के बिल्कुल विरुद्ध है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि हमारी आकाशगंगा के सबसे पुराने सितारे की उम्र 13.2 अरब वर्ष है। दूसरी आकाशगंगाओं में इससे भी ज़्यादा प्राचीन सृष्टियां मौजूद हैं। वैज्ञानिकों ने यह भी बताया है कि हमारी पृथ्वी को बने हुए लगभग 4.54 अरब वर्ष हो चुके हैं। ऐसे में सृष्टि संवत के आधार पर इस सृष्टि को एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पहले उत्पन्न हुआ मानना केवल स्वामी जी की कोरी कल्पना है। जिसका कोई प्रमाण नहीं है।


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वेदों का काल जानने में भी असफल रहे स्वामी जी

वेदों का सही अर्थ न जानने के कारण स्वामी दयानंद जी यह भी नहीं जान पाए कि वेदों की रचना कब और कैसे हुई?,
    सही जानकारी के अभाव में उन्होंने यह कल्पना कर ली कि चारों वेद परमेश्वर की वाणी हैं। परमेश्वर ने सृष्टि के आरंभ में एक एक ऋषि के अंतःकरण में एक एक वेद का प्रकाश किया। अपनी इस कल्पना की पुष्टि में उन्हें कोई प्रमाण न मिला। तब उन्होंने शतपथ ब्राह्मण से एक उद्धरण दिया और उसका अर्थ अपनी कल्पना से यह बनाया-
    ‘अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः।।शत.।।
    प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक एक वेद का प्रकाश किया।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तमसमुल्लास, पृष्‍ठ 135)
इस श्लोक में ‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा द्वारा’ वेद देने की बात नहीं आई है। स्वामी जी ने अपनी कल्पना को इस श्लोक में आरोपित करके यह अर्थ निकाला है। 
इस श्लोक में चैथे ऋषि अंगिरा को एक वेद मिलने की बात नहीं आई है। यह भी स्वामी जी की कल्पना है।

    जो बात इस श्लोक में कही गई है। वह स्वामी जी ने बताई नहीं है। इस श्लोक में अग्नि का संबंध ऋग्वेद से, यजुर्वेद का संबंध वायु से और सामवेद का संबंध सूर्य से दर्शाया गया है। यह संबंध स्वामी जी ने अपने अनुवाद या भावार्थ में दर्शाया ही नहीं। 


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सूर्य किसी लोक या केन्द्र के चारों ओर नहीं घूमता

स्वामी जी के वेदार्थ का एक और नमूना देख लीजिए-

‘जो सविता अर्थात सूर्य ... अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता।’
  (यजुर्वेद, अ033, मं. 43/सत्यार्थप्रकाश, अष्टम. पृ. 155)

(38) यह बात भी सृष्टि नियम के विरुद्ध है। एक बच्चा भी आज यह जानता है कि सूर्य न केवल अपनी धुरी पर बल्कि किसी केन्द्र के चारों ओर भी पूरे सौर मण्डल सहित चक्कर लगा रहा है। तब सृष्टिकर्ता परमेश्वर अपनी वाणी वेद में असत्य बात क्यों कहेगा? देखिये-
‘सूर्य अपनी धुरी पर 27 दिन में एक चक्कर पूरा करता है।’
 (हमारा भूमण्डल, कक्षा 6, भाग 1, पृष्ठ 9, बेसिक शिक्षा परिषद, उत्तर प्रदेश, लेखक- अंजु गौतम आदि)

‘तुम्हें यह जानकर बड़ा आश्चर्य होगा कि हमारा सूर्य बड़ी तेज़ी से चक्कर लगाते हुए लगभग 25 करोड़ वर्ष में अपनी आकाशगंगा की एक परिक्रमा पूरी करता है।’ (पुस्तक उपरोक्त, पृष्ठ 6)
(39) स्वामी जी ने सायण, उव्वट और महीधर आदि विद्वानों को भांड, धूर्त आदि अशोभनीय शब्द कहे और उनके वेदभाष्य को भ्रष्‍ट बताया। उन्होंने केवल अपने द्वारा रचित वेदार्थ को ही ठीक बताया है। स्वामी जी वेद को ईश्वरोक्त मानते थे न कि ऋषियों की रचना। स्वामी जी ने ईश्वरोक्त ग्रन्थ के जो लक्षण बताए हैं, क्या वे लक्षण वेद में पाए जाते हैं?

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Tuesday, September 6, 2016

वेदविरुद्ध पोपलीला चलाने वाला नास्तिक होता है


स्वामी जी कहते हैं-
    ‘नास्तिक वह होता है जो वेद ईश्वर की आज्ञा विरुद्ध पोपलीला चलावे।’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टम., पृ.232)
    स्वामी दयानन्द जी के सिद्धान्त पर स्वयं उनकी मान्यताओं को परखा जाए तो-
(35) क्या स्वयं उन की मान्यताएं भी वेद ईश्वर की आज्ञा विरूद्ध पोपलीला नहीं ठहरतीं?
(36) स्वामी जी क्या सिद्ध होते हैं, आस्तिक या नास्तिक?
    ये सवाल आप अपनी आत्मा से पूछिये, वहां से आपको तुरन्त सही जवाब मिल जाएगा।

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वेद में क्यों नहीं मिलता स्वामी जी का बताया वेदमंत्र?

स्वामी जी की यह कल्पना भी ग़लत निकली कि
‘आदि में अनेक अर्थात् सैकड़ों सहस्त्रों मनुष्य उत्पन्न हुए। और सृष्टि में देखने से भी निश्चित होता है कि मनुष्य अनेक माँ-बाप की सन्तान हैं।’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टम., पृ.150)
...और वह प्रमाण भी झूठा निकला, जो इस मान्यता की पुष्टि में उन्होंने इससे पहले लिखा है कि
‘‘क्योंकि ‘मनुष्या ऋड्ढयश्च ये। ततो मनुष्या अजायन्त’ यह यजुर्वेद में लिखा है।’’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टम., पृ.150)

आश्चर्यजनक किन्तु सत्य यह है कि उपरोक्त मंत्र यजुर्वेद में है ही नहीं। स्वामी जी ने एक ऐसी मान्यता का और एक ऐसे मंत्र का प्रचार कर दिया जो कि वेद में नहीं है। आर्य समाजी विद्वान भी ढूंढ ढूंढ कर थक गए। उन्हें भी वेद में यह प्रमाण नहीं मिला। उन्हें स्वामी जी की रचनाओं को युद्ध करते हुए 140 वर्ष  से ज़्यादा हो गए लेकिन उनकी रचनाएं फिर भी युद्ध नहीं हो पाईं। उपरोक्त अशुद्धि आज भी सत्यार्थप्रकाश में विद्यमान है। जो कि वेद विषय में स्वामी जी की विश्वसनीयता समाप्त करने के लिए काफ़ी है।
(34) या तो स्वामी जी को यही पता न था कि यह मंत्र वेद का नहीं है या वह जान बूझ कर वेद के नाम पर झूठे प्रमाण दे दिया करते थे जैसा कि बहुत से गुरुओं की आदत है?


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सब एक माता पिता की सन्तान हैं

सत्य की प्राप्ति के लिए शठवृत्ति, भेदभाव और अहंकार का त्याग ज़रूरी है। वैसे भी सब मनु की सन्तान हैं- ‘जनं मनुजातं’ (ऋग्वेद 1,45,1)
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् धरती के सब मनुष्‍य एक परिवार हैं । विभिन्न नस्लों के डीएनए पर रिसर्च करने के बाद आधुनिक वैज्ञानिकों ने धरती के सभी मनुष्यों में एक ही जोड़े का डीएनए पाया है अर्थात सब मनुष्य एक ही स्त्री-पुरूड्ढ की सन्तान हैं, जैसा कि इसलाम कहता है।
    मा भ्राता भ्रातारं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा ।
     सम्यग्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया ।।
‘भाई, भाई से और बहन, बहन से द्वेष न करे। एक मन और गति वाले होकर मंगलमय बात करें।’ (अथर्ववेद 3,30,3)
वैमनस्य और नफ़रत फैलाना छोड़कर सद्भावना प्रेम, शांति, एकता, ज्ञान और उन्नति का माहौल बनाना चाहिए। अन्य देशवासी भाई बहनों के पास भी ईश्वरीय ज्ञान है। उनसे ज्ञान प्राप्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए। यही सर्वहितकारी और मंगलमय बात है।

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डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --पुस्तक में108 प्रश्न नंबर ब्रेकिट में दिये गए हैं
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पुस्तक युनिकोड में चार पार्ट में इधर भी है
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अग्नि के विषय में भी स्वामी जी का मत ग़लत है

अग्नि 3 द्वयणुक अर्थात 6 अणुओं के मिलने से नहीं बनती। जैसा कि स्वामी ने कहा है। उन्होंने जीवन भर हवन किया लेकिन कभी 6 अणु मिलाकर आग नहीं जलाई और न ही कोई आर्य विद्वान आज ऐसा कर सकता है। 
विज्ञान के अनुसार अग्नि दहनशील पदार्थों का तीव्र आक्सीकरण है। जिससे ऊष्मा, प्रकाश और कार्बन डाई आॅक्साईड जैसे अन्य अनेक रासायनिक प्रतिकारक उत्पाद उत्पन्न होते हैं। अग्नि को बुझाना हो तो ईंधन और आक्सीजन में से किसी एक को अलग कर दिया जाता है। 
यदि स्वामी जी के मत को मान लिया जाता तो देश की सारी उन्नति ठप्प हो जाती। उनके विचार आज प्रासंगिक नहीं रह गये हैं। समय ने उन्हें रद्द कर दिया है। जिन लोगों को म्लेच्छ कहकर हेय समझा गया, देश के वैज्ञानिकों ने उन्हीं का अनुकरण करके उन्नति की है।
(32) स्वामी जी स्थूल अग्नि के विषय में सही ज्ञान नहीं रखते थे। ऐसे में ईश्वर और आत्मा जैसे सूक्ष्म तत्व के विषय में उनकी जानकारी का विश्वास कैसे किया जा सकता है? 
(33) यदि प्रकृति के विषय में अभारतीयों का ज्ञान सत्य और श्रेष्‍ठ हो सकता है तो फिर ईश्वर और जीव के विषय में क्यों नहीं हो सकता? 


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परमाणु टूटने के साथ ही स्वामी जी का दर्शन मिथ्या सिद्ध हो गया

परमाणु को अविभाज्य मानना भी ग़लत है। दरअसल प्राचीन काल से भारतीय दर्शन में परमाणु का न टूटना बताया गया है और स्वामी जी के काल तक परमाणु को तोड़ना संभव नहीं हुआ था। इसलिए वह परमाणु को अविभाज्य लिख गए हैं परन्तु अब परमाणु को तोड़ना संभव है। विदेशी वैज्ञानिकों ने अपने विज्ञान से परमाणु को तोड़ डाला। भारत के वैज्ञानिकों ने उनसे यह विज्ञान सीखा। आज भारत में कई ‘परमाणु रिएक्टर’ इसी सिद्वान्त के अनुसार ऊर्जा उत्पादन करते हैं। परमाणु के टूटने के बाद स्वामी जी का परमाणु विज्ञान व्यर्थ और कल्पना मात्र सिद्ध हुआ। दरअसल यह कोई वैदिक सिद्धान्त नहीं है बल्कि एक दार्शनिक मत है। विदेशी वैज्ञानिकों ने जैसे अविष्कार बिना वेद पढ़े ही कर दिए हैं, आर्य समाजियों को अपने गुरूकुलों में वेद पढ़कर उनसे बड़े अविष्कार कर दिखाने थे। वे ऐसा कुछ नहीं कर पाए, सिवाए दूसरों की मज़ाक़ उड़ाने और डींग हाँकने के। परमाणु टूट गया लेकिन फिर भी वे दर्शन की उन पुरानी मान्यताओं को नहीं छोड़ पाए, जिन्हें भारतीय वैज्ञानिकों ने त्याग दिया है।
आग, पानी, हवा और पृथ्वी की संरचना का वर्णन भी विज्ञान विरूद्ध है। उदाहरणार्थ चार द्वयणुक अर्थात 8 अणुओं के मिलने से नहीं बल्कि हाइड्रोजन के 2 और ऑक्सीजन का 1 अणु, कुल 3 अणुओं के मिलने से जल बनता है। इसी तरह पृथ्वी भी पांच द्वयणुक से नहीं बनी है बल्कि कैल्शियम, कार्बन, मैग्नीज़ आदि बहुत से तत्वों से बनी है और हरेक तत्व की आण्विक संरचना अलग-अलग है। वायु के विषय में भी स्वामी जी का मत ग़लत है। वायु भी दो अणुओ से नहीं बनती। जो बात स्वामी जी ने जैनियों के विषय में कही है। वह स्वयं उन पर ही चरितार्थ हो रही है। देखिए-
(31) ‘स्थूल वात का भी यथावत ज्ञान नहीं तो परम सूक्ष्म सृष्टिविद्या का बोध कैसे हो सकता है?’ (सत्याथ प्रकाश, द्वादशसमुल्लास, पृष्ठ 294)

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