कोई आर्य समाजी भाई कह सकता है कि सन्यासी उदार होता है, इसलिए वह दुष्टों को क्षमा कर सकता है। स्वयं स्वामी जी ने भी अनूपशहर में अपने विषय में ऐसा कहा था लेकिन स्वामी जी सब दुष्टों को क्षमा नहीं करते थे। उनके जीवन में कई घटनाएं ऐसी मिलती हैं। जबकि उन्होंने दुष्टों को दण्ड दिया और दिलाया है।
उनके साथ एक कल्लू कहार भरतपुर का रहने वाला, जिस पर स्वामी जी का बड़ा प्रेम और भरोसा था, वह कहार स्वामी जी का छः सात सौ रुपये का माल लेकर खिड़की से भाग गया। माल के चुराये जाने के विषय में रामानन्द, बिहारी, रामचन्द्र और देवदत्त आदि पर भी सन्देह था। स्वामी जी ने इनकी शिकायत अधिकारियों से की।
‘उनके बयान अधिकारियों द्वारा लिए गये, परन्तु वे जेलख़ाने नहीं भिजवाए गए। ऐसी ऐसी कार्यवाहियों के होने पर स्वामी जी का इन लोगों से ही नहीं प्रत्युत इस रियासत के मनुष्यों पर से विश्वास उठ गया और उस नगर से चले जाने का विचार किया।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.820)
(18) हत्या की अपेक्षा चोरी छोटा अपराध होता है। स्वामी जी ने बड़े अपराधी को माफ़ कर दिया और चोरी के मुल्ज़िम को बल्कि संदिग्ध व्यक्तियों को भी जेल भिजवाने की कोशिश की। क्या यह उनके संशयग्रस्त होने का प्रमाण नहीं है?
स्वामी जी के शिष्य गुसाईं बलदेव गिरी ने भी एक घटना का वर्णन किया है कि अहे उड़ेस ज़िला एटा का एक ठाकुर आकर स्वामी जी के बराबर बैठ गया। बलदेव जी ने उससे कहा कि तू अलग बैठ, स्वामी जी के बराबर बैठना तुझ जैसे गृहस्थियों का काम नहीं है। इसी बात पर दोनों में पहले तकरार हुई और फिर मारपीट हो गई। ठाकुर के साथ चार आदमी भी थे।
‘पहले के हाथ से जब लाठी छूट गई तो हमने लेकर सबके चूतड़ों पर दो-दो लगाई और ठाकुर का जूड़ा पकड़ कर गिरा दिया। इस पर वे सब फिसलते-फिसलते गंगा के कीचड़ में जा गिरे और फंस गए।...इस लड़ाई के पश्चात् हमको यह ध्यान आया कि कहीं ऐसा न हो कि स्वामी जी हमसे क्रोधित हो गये हों और हमारे भोजन को ग्रहण न करें परन्तु स्वामी जी ने हमारी ओर देखा और कहा-‘श्रृणु. हस्तप्रक्षालनं कृत्वा भोजनमानय’ अर्थात् सुनो, हाथ धोकर भोजन ले आओ। मैं भोजन ले गया। स्वामी जी ने भोजन किया और हमसे बहुत प्रसन्न हुए।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.114)
उनके साथ एक कल्लू कहार भरतपुर का रहने वाला, जिस पर स्वामी जी का बड़ा प्रेम और भरोसा था, वह कहार स्वामी जी का छः सात सौ रुपये का माल लेकर खिड़की से भाग गया। माल के चुराये जाने के विषय में रामानन्द, बिहारी, रामचन्द्र और देवदत्त आदि पर भी सन्देह था। स्वामी जी ने इनकी शिकायत अधिकारियों से की।
‘उनके बयान अधिकारियों द्वारा लिए गये, परन्तु वे जेलख़ाने नहीं भिजवाए गए। ऐसी ऐसी कार्यवाहियों के होने पर स्वामी जी का इन लोगों से ही नहीं प्रत्युत इस रियासत के मनुष्यों पर से विश्वास उठ गया और उस नगर से चले जाने का विचार किया।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.820)
(18) हत्या की अपेक्षा चोरी छोटा अपराध होता है। स्वामी जी ने बड़े अपराधी को माफ़ कर दिया और चोरी के मुल्ज़िम को बल्कि संदिग्ध व्यक्तियों को भी जेल भिजवाने की कोशिश की। क्या यह उनके संशयग्रस्त होने का प्रमाण नहीं है?
स्वामी जी के शिष्य गुसाईं बलदेव गिरी ने भी एक घटना का वर्णन किया है कि अहे उड़ेस ज़िला एटा का एक ठाकुर आकर स्वामी जी के बराबर बैठ गया। बलदेव जी ने उससे कहा कि तू अलग बैठ, स्वामी जी के बराबर बैठना तुझ जैसे गृहस्थियों का काम नहीं है। इसी बात पर दोनों में पहले तकरार हुई और फिर मारपीट हो गई। ठाकुर के साथ चार आदमी भी थे।
‘पहले के हाथ से जब लाठी छूट गई तो हमने लेकर सबके चूतड़ों पर दो-दो लगाई और ठाकुर का जूड़ा पकड़ कर गिरा दिया। इस पर वे सब फिसलते-फिसलते गंगा के कीचड़ में जा गिरे और फंस गए।...इस लड़ाई के पश्चात् हमको यह ध्यान आया कि कहीं ऐसा न हो कि स्वामी जी हमसे क्रोधित हो गये हों और हमारे भोजन को ग्रहण न करें परन्तु स्वामी जी ने हमारी ओर देखा और कहा-‘श्रृणु. हस्तप्रक्षालनं कृत्वा भोजनमानय’ अर्थात् सुनो, हाथ धोकर भोजन ले आओ। मैं भोजन ले गया। स्वामी जी ने भोजन किया और हमसे बहुत प्रसन्न हुए।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.114)
http://www.mediafire.com/download/ydp77xzqb10chyd/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition.pdf --
डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --
https://archive.org/stream/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-published-book/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition#page/n0/mode/2up
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पुस्तक युनिकोड में चार पार्ट में इधर भी है
http://108sawal.blogspot.in/2015/04/swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya.html
