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Wednesday, September 7, 2016

स्वामी जी सृष्टि की उत्पत्ति का काल जानने में भी असफल रहे

‘चारों वेद सृष्टि के आदि में मिले।’ स्वामी जी ने बिना किसी प्रमाण के केवल यह कल्पना ही नहीं की बल्कि उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्तिविषयः, पृष्ठ 16 पर यह भी निश्चित कर दिया कि वेदों और जगत की उत्पत्ति को एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष हो चुके हैं।
    स्वामी जी इस काल गणना को बिल्कुल ठीक बताते हुए कहते हैं-
    ‘...आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेके एक वर्ष पर्यन्त भी काल की सूक्ष्म और स्थूल संज्ञा बांधी है।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 17)
    ‘जो वार्षिक पंचांग बनते जाते हैं इनमें भी मिती से मिती बराबर लिखी चली आती है, इसको अन्यथा कोई नहीं कर सकता।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 19)
    यह बात सृष्टि विज्ञान के बिल्कुल विरुद्ध है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि हमारी आकाशगंगा के सबसे पुराने सितारे की उम्र 13.2 अरब वर्ष है। दूसरी आकाशगंगाओं में इससे भी ज़्यादा प्राचीन सृष्टियां मौजूद हैं। वैज्ञानिकों ने यह भी बताया है कि हमारी पृथ्वी को बने हुए लगभग 4.54 अरब वर्ष हो चुके हैं। ऐसे में सृष्टि संवत के आधार पर इस सृष्टि को एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पहले उत्पन्न हुआ मानना केवल स्वामी जी की कोरी कल्पना है। जिसका कोई प्रमाण नहीं है।


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डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --पुस्तक में108 प्रश्न नंबर ब्रेकिट में दिये गए हैं
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वेदों का काल जानने में भी असफल रहे स्वामी जी

वेदों का सही अर्थ न जानने के कारण स्वामी दयानंद जी यह भी नहीं जान पाए कि वेदों की रचना कब और कैसे हुई?,
    सही जानकारी के अभाव में उन्होंने यह कल्पना कर ली कि चारों वेद परमेश्वर की वाणी हैं। परमेश्वर ने सृष्टि के आरंभ में एक एक ऋषि के अंतःकरण में एक एक वेद का प्रकाश किया। अपनी इस कल्पना की पुष्टि में उन्हें कोई प्रमाण न मिला। तब उन्होंने शतपथ ब्राह्मण से एक उद्धरण दिया और उसका अर्थ अपनी कल्पना से यह बनाया-
    ‘अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः।।शत.।।
    प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक एक वेद का प्रकाश किया।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तमसमुल्लास, पृष्‍ठ 135)
इस श्लोक में ‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा द्वारा’ वेद देने की बात नहीं आई है। स्वामी जी ने अपनी कल्पना को इस श्लोक में आरोपित करके यह अर्थ निकाला है। 
इस श्लोक में चैथे ऋषि अंगिरा को एक वेद मिलने की बात नहीं आई है। यह भी स्वामी जी की कल्पना है।

    जो बात इस श्लोक में कही गई है। वह स्वामी जी ने बताई नहीं है। इस श्लोक में अग्नि का संबंध ऋग्वेद से, यजुर्वेद का संबंध वायु से और सामवेद का संबंध सूर्य से दर्शाया गया है। यह संबंध स्वामी जी ने अपने अनुवाद या भावार्थ में दर्शाया ही नहीं। 


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Tuesday, September 6, 2016

स्वामी दयानंद जी की कल्पना और सौर मण्डल


इसलिए एक भूमि के पास एक चन्द्र और अनेक चन्द्र अनेक भूमियों के मध्य में एक सूर्य रहता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, पृष्ठ 156)
यह बात भी पूरी तरह गलत है। स्वामी जी ने सोच लिया कि जैसे पृथ्वी का केवल एक उपग्रह ‘चन्द्रमा’ है। इसी तरह अन्य ग्रहों का उपग्रह भी एक-एक ही होगा। The Wordsworth Encyclopedia 1995 के अनुसार ही मंगल के 2, नेप्च्यून के 8, बृहस्पति के 16 व शानि के 20 उपग्रह खोजे जा चुके थे। आधुनिक खोजों से इनकी संख्या में और भी इज़ाफा हो गया ।

सन् 2004 में अन्तरिक्षयान वायेजर ने दिखाया कि शनि के उपग्रह 31 से ज़्यादा हैं। (द टाइम्स ऑफ इण्डिया, अंक 2-07-04, मुखपृष्ठ) 

इसके बाद की खोज से इनकी संख्या में और भी बढ़ोतरी हुई है। अंतरिक्ष अनुसंधानकर्ताओं ने ऐसे तारों का पता लगाया है जिनका कोई ग्रह या उपग्रह नहीं है।

PSR  19+16 नामक प्रणाली में एक दूसरे की परिक्रमा करते हुए दो न्यूट्रॉन तारे हैं।’ (समय का संक्षिप्त इतिहास, पृष्‍ठ 96, ले. स्टीफेन हॉकिंग संस्करण 2004, प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन प्रा. लि0, नई दिल्ली-2)

‘खगोलविदों ने ऐसी कई प्रणालियों का पता लगाया है, जिनमें दो तारे एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं। जैसे CYGNUS X-1, सिग्नस एक्स-1’ (पुस्तक उपरोक्त, पृष्‍ठ 100)

(26) वेदों में विज्ञान सिद्ध करने के लिए स्वामी जी ने जो नीति अपनाई है उससे वेदों के प्रति संदेह और अविश्वास ही उत्पन्न होता है। क्या इससे खुद स्वामी जी का विश्वास भी ख़त्म नहीं हो जाता है ?


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क्या स्वामी दयानन्द जी की अविद्या रूपी गाँठ कट गई थी?

      क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तिस्मनदृष्टि पराऽवरे  ।।1।।मुण्डक।।
जब इस जीव के हृदय की अविद्या रूपी गांठ कट जाती, सब संशय छिन्न होते और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी उस परमात्मा जो कि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है, उसमें निवास करता है। (सत्यार्थ प्रकाश, नवम0, पृष्ठ 171)
 ईश्वर का सामीप्य पाने के लिए यहां तीन बातों पर बल दिया गया है-
जीव के हृदय की अविद्या रूपी गांठ कट जाती है।
सब संशय छिन्न होते हैं।
सब दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं।
(15) क्या स्वामी दयानन्द जी ने दुष्टों को क्षमा करके और उन्हें तहसीलदार आदि अधिकारियों के दण्ड से छुड़वाकर दुष्टों का उत्साहवर्धन नहीं किया?
यदि यह सही है तो स्वामी दयानन्द जी में उपरोक्त तीसरे बिन्दु वाली विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती ।
(16) न ही उनके सब संशय छिन्न हो सके थे क्योंकि वह स्वयं ही एक सिद्धान्त निश्चित करते हैं और जब आर्य सभासद उसका पालन करते हैं तो फिर स्वयं ही उन्हें दुष्टों को दण्ड न देने की बात कहते हैं। यह उनके संशयग्रस्त होने का स्पष्‍ट उदाहरण है या नहीं?
(17) क्या यह अविद्या की बात न कही जाएगी कि एक आदमी सारे जगत को उस बात का उपदेश करे जिस पर न तो स्वयं उस को विश्वास हो और न ही उस पर आचरण करे जैसे कि उपरोक्त दुष्‍टों को क्षमा न करने का उपदेश करना और स्वयं लगातार क्षमा करते रहना?
    
    भिद्यते हृदयग्रिन्थरिद्दद्यन्ते सर्वसंशयाः ।

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भांड के समान स्तुति?

उनके इस प्रकार के स्वकथन विरूद्ध आचरण के बाद उनके इस उपदेश का क्या अर्थ रह जाता है-
‘‘नामस्मरण इस प्रकार करना चाहिए-जैसे ‘न्यायकारी’ ईश्वर का एक नाम है। इस नाम से जो इसका अर्थ है कि जैसे पक्षपात रहित होकर परमात्मा सबका यथावत न्याय करता है वैसे उसको ग्रहण कर न्याययुक्त व्यवहार सर्वदा करना, अन्याय कभी न करना। इस प्रकार एक नाम से भी मनुष्‍य का कल्याण हो सकता है।’’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादश., पृष्ठ 210)
‘इससे फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना है। जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होवे। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्ठ 120)
(12) जब न्यायकारी ईश्वर दुष्टों को क्षमा न करके दण्ड देता है तो दयानन्दजी ने ईश्वर का गुण ‘न्यायकारी’ स्वयं क्यों ग्रहण नहीं किया?
(13) अगर ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव के विपरीत चलते हुए उसकी स्तुति आदि करना दयानन्द जी की द‘ष्टि में भांड के समान व्यर्थ चेष्टा है तो क्या दयानन्द जी की स्तुति व उपासना आदि भी व्यर्थ और निष्फल ही थी?
(14) यदि दयानन्द जी परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव जैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव नहीं बना पाये थे तो क्या वह परमेश्वर को प्राप्त हो पाए होंगे जबकि उनके पास ‘सीढ़ी’ भी नहीं थी?
   

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स्वामी जी बूढ़े को जवान करने वाली भस्म बनाना जानते थे

आयुर्वेद के विशेज्ञ बताते हैं कि यदि किसी धातु की भस्म कच्ची रह जाए तो वह विष का काम करती है। लंबे समय तक इन दवाओं को लेने के नतीजे में भी उनकी मृत्यु की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृ. 79 पर पं. गंगाराम का बयान है कि
    ‘हमने कहा कि कृष्णाभ्रक हमने एक ब्रह्मचारी से लिया था जिसके एक चावल से वृद्ध को यौवनशक्ति प्राप्त होती है। सात दिन की सेवनविधि है। स्वामी जी कहने लगे कि कृष्णाभ्रक मेरे पास है, ले लेना और उन्होंने पुड़िया बांध कर दी।’
    इसी पुस्तक के पृष्ठ 80 पर स्वामी जी के द्वारा नित्य मालकंगनी के 5 दाने खाने और पारे की भस्म बनाने की विधि बताने का वर्णन भी आया है। जिससे सिद्ध होता है कि स्वामी दयानन्द जी शक्तिवर्धक भस्में और दवाएं खाया करते थे। इससे इस सम्भावना को बल मिलता है कि उन्होंने अमर होने के लिए स्वयं पर किसी अन्य आयुर्वेदिक दवा का परीक्षण किया होगा और उसके साइड इफ़ेक्ट से स्वामी जी बीमार पड़ गए होंगे। आखि़र वह अपने घर से अमर होने के लिए ही निकले थे।
    इस पहलू को आर्य समाजी प्रचारकों ने भी छिपाए रखा है कि स्वामी जी जब मथुरा में पढ़ रहे थे, तब से वह अभ्रक और पारे की भस्म बनाते आ रहे थे-
    ‘स्वामी जी कभी-कभी मथुरा में अभ्रक फूंकते और पारे की गोली भी बांधा करते थे।’ (म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृ. 57)

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स्वामी जी की मौत के विषय में, झूठे प्रचार का उद्देश्य? false propaganda

स्वामी जी की जीवनी लिखने वाले आर्य समाजी लेखक इस घटना को सत्य मानते हैं। उनके लेखन पर विश्वास करके हम भी स्वामी जी की मृत्यु का कारण उन्हें विष देना ही मानते थे लेकिन इंटरनेट पर हमारी इस पुस्तक का प्रथम संस्करण पढ़कर एक आर्य भाई ने कहा कि उन्हें विष देने की घटना झूठी है। आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र’ नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया है। उनके जीवन की घटनाओं के विषय में वही ग्रन्थ प्रामाणिक है। उसमें यह घटना नहीं है।
दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला 2012 लगा तो हमने एक सहयोगी मित्र से आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र’ मंगवाकर पढ़ी तो वाक़ई उसमें रसोईये से विष देने के सम्बंध में स्वामी जी का कोई कथन नहीं मिला।
स्वामी जी ने अपने रसोईये से तो क्या किसी से भी नहीं कहा कि उन्हें किसी ने ज़हर दिया है। स्वामी जी के नाम पर आर्य समाजी प्रचारक बरसों से इतना बड़ा झूठ बोलकर आम लोगों को धोखा क्यों देते आ रहे हैं?
शायद स्वामी जी को लोगों की नज़रों में ‘शहीद’ का सम्मानित दर्जा दिलाने के लिए ही यह झूठ आम किया गया है। झूठी बात फैलाते समय उन्होंने यह क्यों नहीं सोचा कि जब कभी यह झूठ पकड़ा जाएगा तो लोगों में ‘आर्य समाज’ की विश्वसनीयता ही ख़त्म हो जाएगी? 

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जहर से मरना महान आत्माओं को शोभा नहीं देता
तहकीकी Urdu Article पढने से पता चलता है दयानंद की मौत भस्म खाने से हुई महान बनाने के लिए जहर की कहानी चलायी गयी,  बार बार कहानी को बदला गया दयानंद जी की मौत नन्ही जान, कालू रसोइए और कहार  में घूमती रही अब उपरोक्त पोस्ट से पता चलता है कि इस मौत को ही हटाया जा रहा है

सौ साल से अधिक पुराना तहकीकी आर्टिकल उर्दू में इस लिंक पर पढें 

नेट में अभी जहर की कहानी घूम रही है यह देखो


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Monday, September 5, 2016

स्वामी जी की असफलता का कारण


माता पिता आदि को छोड़कर और झूठ बोलकर सन्यास लेने वाले एक उपदेशक के मत की पोल खोलते हुए स्वामी जी कहते हैं-
‘देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ.251)
स्वामी जी को उनके पिता जी ने ‘कुल को कलंक लगाने वाला’ और ‘निर्मोही’ आदि जो कुछ कहा है। वह तो स्वामी जी ने बता दिया है लेकिन धोखा देकर पुनः भाग जाने पर जो कुछ कहा होगा, उसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। पिता का विश्वास भंग करने वाले को विश्वस्त सेवक न मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं है। स्वामी जी के अन्तिम दिनों के दुखद हालात का वर्णन इस प्रकार मिलता है-
    ‘हमने सुना है कि स्वामी जी पहरे वालों और दारोगा आदि पर जब ताड़ना करते थे तो ये स्वामी जी के सामने हाथ जोड़ ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहते थे, पश्चात् परस्पर हंसते थे। स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
(1) माँ-बाप को जीते जी ही मार डालने वाला आदमी समाज को जीने की सही राह कैसे दिखा सकता है?
(2) स्वामी जी ने सत्य की खोज का आरम्भ ही असत्य से किया तो वह असत्य के सिवा और क्या पा सकते थे?
जिस काम की शुरूआत असत्य और धोखाधड़ी से की जाती है, उसमें असफलता ही मिलती है। अपनी असफलता और उसके कारण के विषय में स्वामी जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि
‘मैंने अनेक पाठशालाएं खोलीं। पंडितों को शिष्य बनाया। पर वे लोग मेरे सामने वेद मार्ग पर चलते हैं। तत्पश्चात् पौराणिक बन जाते हैं। वे मेरे प्रतिकूल ताना-बाना बुनते हैं। मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा। 
इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था। माँ की ममता का मैंने ध्यान नहीं किया। पितृऋण भी नहीं उतार सका। यही ऐसे कर्म हैं, जो मुझे सच्चे शिष्य मिलने में बाधक हैं।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121)

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Sunday, September 4, 2016

क्या से क्या हो गया?

  वास्तव में परम प्रशंसा, स्तुति और वन्दना उस परमेश्वर के लिए है जो अपनी पैदा की हुई सारी चीज़ों का पालनहार है और उन्हें पूर्णता तक पहुंचाने में सक्षम है। वह एक है। सबका मालिक वही एक है। सब चीज़ें उसी के नियमों के अधीन हैं। यह परम सत्य है। आदिकाल से इस एक सत्य को विद्वानों ने बहुत से अलंकारों से सुशोभित करते हुए कहा है।
      जब युग बदले, भाषा बदली  और विद्वान भी बदल गए। राजा बदले, प्रजा बदली और उनके देश भी बदल गए। सोच बदली और परम्पराएं भी बदल गईं। तब जो रूपक अलंकार थे, उन्हें कथा समझ लिया गया। अर्थ का अनर्थ हो गया। अधर्म के काम धर्म समझ लिए गए। राजा, प्रजा, और प्रकृति सबकी स्तुति होने लगी। सबको देवता समझ लिया गया। बाद के लोगों ने पुराना काव्य नये काव्य के साथ संकलित कर दिया तो देव की स्तुति के साथ देवताओं की स्तुति भी मिश्रित हो गई। नासमझी से उत्पन्न बहुदेववाद को चतुर लोगों ने मूर्तिपूजा का रूप देकर अपनी रोज़ी का जुगाड़ कर लिया। इस तरह धर्म का लोप हुआ और उसकी जगह अधर्म को दे दी गई। समाज के नीति-नियम यही अधर्मी बनाने लगे। इन्हीं अधर्मियों के कारण अत्याचार और युद्ध हुए और मानव जाति बर्बाद हो गई। दोष दिया गया निर्दोष धर्म को। विचारकों के मन को सवालों ने बेचैन किया तो धर्म का लोप करने वालों ने अध्यात्म से उन्हें भी शांत कर दिया। वे कहने लगे कि मन को विचारशून्य बना लो, परम शांति मिल जाएगी। तर्क त्याग दो, श्रद्धा उपलब्ध हो जाएगी।

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anwer jamal Book भूमिका

इन्सान का रास्ता नेकी और भलाई का रास्ता है। यह रास्ता सिर्फ उन्हें नसीब होता है जो धर्म और दर्शन (Philosophy) में अन्तर जानने की बुद्धि रखते हैं। धर्म ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है जो मूलतः न बदलता है और न ही कभी बदला जा सकता है, अलबत्ता धर्म से हटने वाला अपने विनाश को न्यौता दे बैठता है और जब यह हटना व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो तो फिर विनाश की व्यापकता भी बढ़ जाती है।
    दर्शन इन्सानी दिमाग़ की उपज होते हैं। ये समय के साथ बनते और बदलते रहते हैं। धर्म सत्य होता है जबकि दर्शन इन्सान की कल्पना पर आधारित होते हैं। जैसे सत्य का विकल्प कल्पना नहीं होती है। ऐसे ही धर्म की जगह दर्शन काम नहीं दे सकता। दर्शन में सही और लाभदायक शिक्षाएं होती हैं लेकिन इनसे लाभ लेने के लिए भी धर्म का ज्ञान अनिवार्य है।
धर्म को भुलाकर दर्शन के अनुसार जीना ग़लत ढंग से जीना है, जिसका अंजाम तबाही की शक्ल में सामने आता है। इसीलिए हज़ारों वर्ष पहले हमारे समाज में बहुदेववाद, जातिवाद और अन्याय पनपा, युद्ध हुए। एक आर्यावर्त में हज़ारों देश बने। विदेशी आक्रमण से ज़्यादा देशी आक्रमण हुए। परायों से ज़्यादा अपनों का ख़ून, अपनों के हाथों बहता रहा। विद्वान बताते हैं कि अकेले महाभारत के युद्ध में ही 1 अरब 66 करोड़ मनुष्य मारे गए। हज़ारों युद्ध और भी हुए, लाखों तबाहियाँ हुईं और आखि़रकार भारतीय विदेशियों के ग़ुलाम बन गए। वे आज भी क़र्ज़दार हैं। भारत को तीसरी दुनिया के देशों में गिना जाता है। इस तरह धर्म वाला विश्वगुरू भारत दर्शनों पर चलकर बर्बाद हो गया।
    भारत एक धर्म प्रधान देश था लेकिन बाद में दार्शनिकों ने इसे दर्शन प्रधान बना दिया। आज हर तरफ़ दर्शनों का बोलबाला है। दर्शनों की भीड़ में धर्म कहीं खो गया है। आज वैदिक धर्म में अग्नि का बड़ा महत्व है। अग्नि के बिना यज्ञ-हवन नहीं हो सकता। वैदिक धर्म के 16 संस्कारों में से कोई एक भी बिना अग्नि के संपन्न नहीं हो सकता। जबकि अग्नि की खोज से पहले मनुष्य परमेश्वर की उपासना और अंतिम संस्कार आदि अग्नि के बिना ही करता था।
    अग्नि की खोज के बाद धर्म के रूप को बदल दिया गया। पहले जिस धर्म में उपासना के लिए ध्यान और नमन था, उसमें अब हवन भी शुरू कर दिया। इस तरह धर्म से हटने और दर्शन पर चलने की शुरूआत हुई। इन्हें लिखा गया तो वर्तमान वेद, उपनिषद व दर्शन आदि बन गए। समय के साथ यज्ञ के रीति रिवाज जटिल हो गए। राजकोष जनकल्याण के कामों पर ख़र्च होने के बजाय महीनों चलने वाले महंगे यज्ञों में स्वाहा होने लगा। तब बौद्ध, जैन और चार्वाक आदि ने जनता के विरोध को स्वर दिया। उनकी बातों में भी दर्शन था। यज्ञ करने वाले और उनका विरोध करने वाले, दोनों ही दर्शन की बातें कर रहे थे। धर्म कहीं पीछे छूट चुका था।
    ये अनेकों दर्शन धर्म की जगह लेते चले गए। इसी से विकार जन्मे। सुधारकों ने उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया। लाखों गुरूओं के हज़ारों साल के प्रयास के बावजूद यह भारत भूमि आज तक जुर्म, पाप और अन्याय से पवित्र न हो सकी। कारण, प्रत्येक सुधारक ने पिछले दर्शन की जगह अपने दर्शन को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया, धर्म को नहीं। उन्हें पता ही न था कि दर्शनों की रचना से पूर्व धर्म का स्वरूप क्या था ?
    स्वामी दयानन्द जी भी एक ऐसे ही दार्शनिक थे। धर्म को न जानने के कारण उन्होंने सुबह शाम अग्निहोत्र (हवन) करना हरेक मनुष्य का कर्तव्य निश्चित कर दिया और न करने वाले को सत्यार्थप्रकाश, चौथे समुल्लास (पृष्ठ 65) में शूद्र घोषित कर दिया। आर्य समाज मंदिरों में भी दोनों समय हवन नहीं होता। आर्य समाज के सदस्य और पदाधिकारी तक दोनों समय हवन नहीं करते, कर भी नहीं सकते। सुबह शाम हवन, वह आर्य समाजियों से अपने सामने भी न करा पाए।
    नतीजा यह हुआ कि जो लोग उनके पास आर्य बनने के लिए आते थे, वे हवन न करने के कारण शूद्र अर्थात मूर्ख बनते रहे। स्वामी दयानंद जी के अनुसार सनातनी पंडित लोगों को मूर्ख बना रहे थे और उनका विरोध करने वाले स्वामी जी ख़ुद भी आजीवन यही करते रहे। उनके बाद भी यह सिलसिला जारी है। उनकी घोर असफलता का कारण केवल यह था कि उन्हें दर्शन का ज्ञान था, धर्म का नहीं।
    धर्म में ध्यान और नमन है, हवन नहीं। अग्नि की खोज से पहले भी धर्म यही था और आज भी धर्म यही है। सनातन काल से मनुष्य का धर्म यही है। इसलाम इसी सनातन धर्म की शिक्षा देता है। इसलाम का विरोध वही करता है, जिसे धर्म के आदि सनातन स्वरूप का ज्ञान नहीं है। ऐसे ही दार्शनिकों के कारण बहुत से मत बने और अधिकतर मनुष्य धर्म से हटकर विनाश को प्राप्त हुए।
    जिस भूमि के अन्न-जल से हमारी परवरिश हुई और जिस समाज ने हम पर उपकार किया, उसका हित चाहना हमारा पहला कर्तव्य है। मानवता को महाविनाश से बचाने के उद्देश्य से ही यह पुस्तक लिखी गई है। जगह-जगह मिलने वाले दयानन्दी बंधुओं के बर्ताव ने भी इस पुस्तक की ज़रूरत का अहसास दिलाया और स्वयं स्वामी जी का आग्रह भी था-
    ‘इस को देख दिखला के मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करके मुझे वा सब महाशयों का मुख्य कर्तव्य काम है।’ (भूमिका, सत्यार्थप्रकाश, पृष्‍ठ 5, 30वाँ संस्करण)
    सो हमने अपना कर्तव्य पूरा किया। अब ज़िम्मेदारी आप की है। आपका फै़सला बहुत अहम है। अपना शुभ-अशुभ अब स्वयं आपके हाथ है। स्वामी जी के शब्दों में हम यह विनम्र निवेदन करना चाहेंगे कि
‘यह लेख हठ, दुराग्रह, ईष्र्या, द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिए किया गया है न कि इनको बढ़ाने के अर्थ। क्योंकि एक दूसरे की हानि करने से पृथक् रह परस्पर को लाभ पहुँचाना हमारा मुख्य कर्म है।’ (सत्यार्थप्रकाश, अनुभूमिका 4, पृ.360)
    ‘इस मेरे कर्म से यदि उपकार न मानें तो विरोध भी न करें। क्योंकि मेरा तात्पर्य किसी की हानि या विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने का है।’ (सत्यार्थप्रकाश, अनुभूमिका, पृ.186)

विनीत,
डा. अनवर जमाल              
दिनांक - बुद्धवार, 29 जुलाई 2009
श्रावण, अष्टमी द्वितीया, सं. 2066
द्वितीय, दिनांकः रविवार, 15 सितम्बर 2013
9 ज़ी-क़ाअदा 1434 हिजरी


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 http://www.mediafire.com/download/ydp77xzqb10chyd/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition.pdf
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पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --
 https://archive.org/stream/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-published-book/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition#page/n0/mode/2up
पुस्तक युनिकोड में चार पार्ट में इधर भी है --
http://108sawal.blogspot.in/2015/04/swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya.html

book स्वागत - Dr. Ayaz

डा. अनवर जमाल साहब की पुस्तक ‘दयानन्द जी ने क्या खोजा, क्या पाया?’ का प्रथम संस्करण अगस्त 2009 में प्रकाशित हुआ। इसका सभी वर्ग के पाठकों द्वारा जिस उत्साह के साथ स्वागत किया गया। उसने बहुत जल्द इसके दूसरे संस्करण की ज़रूरत पैदा कर दी लेकिन डाक्टर साहब की व्यस्तता के चलते यह काम समय लेता चला गया। अब इसी पुस्तक का दूसरा संस्करण आपके हाथों में है। इस नए संस्करण के टाइटिल में आर्य समाज के संस्थापक के नाम के साथ स्वामी शब्द की वृद्धि कर दी गई है क्योंकि वेद-क़ुरआन साहित्य के रचयिता एक बड़े मुस्लिम आलिम ने ऐसा करने के लिए कहा था। उचित सलाह देने और उसकी क़द्र करने की यह एक अच्छी मिसाल है। इस नए संस्करण में बहुत से ऐसे तथ्य और दे दिए गए हैं जो कि पहले संस्करण में नहीं हैं। इस तरह यह प्रथम संस्करण से अलग एक नई पुस्तक बन गई है कि अगर दोनों पुस्तकें साथ-साथ छपती रहें तो भी दोनों अपनी जगह पूरा नफ़ा देती रहेंगी।
    यह पुस्तक हिन्दी साहित्य में अपनी तरह की पहली पुस्तक है। जिसमें डा. अनवर जमाल साहब ने स्वामी दयानन्द जी के सिद्धान्तों की व्यवहारिकता को स्वयं स्वामी जी के जीवन के दर्पण में देखने का प्रयास किया है। इस कार्य के लिए उन्होंने काफ़ी रिसर्च की है। उनकी रिसर्च का उद्देश्य आर्य समाज मत के संस्थापक को दोष देना  नहीं है बल्कि उन अवरोधों को चिन्हित करना है l जिन्हें हटाने का स्वाभाविक परिणाम वैदिक धर्म और इसलाम के मानने वालों के बीच क्रमशः एकता और एकत्व की स्थापना है।
लेखक ने अपने शोध में पाया है कि सबका ईश्वर और सारी मानव-जाति का धर्म एक ही है, दोष यदि कहीं है तो मतभेद के कारण है और यह मतभेद दार्शनिकों और आलिमों की निजी व्याख्याओं के कारण है। ईश्वर के ज्ञान और उसकी विशाल प्रकृति के सभी रहस्यों को कोई सामान्य मनुष्य अपनी सीमित बुद्धि से बिल्कुल ठीक ठीक जान ले, यह संभव नहीं है। समय के साथ ये मतभेद स्वयं ही दूर होते जा रहे हैं, यह हर्ष का विषय है। हम इन परिवर्तनों को जागरूक होकर अंगीकार कर सकें तो हिन्दू-मुस्लिम चेतना के एक होने में ज़्यादा देर नहीं लगेगी। जिसके असर से पूरी दुनिया में फैले हुए हिन्दू-मुस्लिम एक अजेय शक्ति बन जाएंगे। इसके बाद भारत पूरे विश्व का नेतृत्व करने की शक्ति सहज ही अर्जित कर लेगा। इस महान एकता में बाधक बनने वाले विचारों को ईश्वर की प्रकृति सुप्त और मृत करते हुए भारतीय चेतना का परिमार्जन निरन्तर कर ही रही है।
    ‘बल्कि हम तो असत्य पर सत्य की चोट लगाते हैं तो वह उसका सिर तोड़ देता है। फिर क्या देखते हैं कि वह मिटकर रह जाता है और तुम्हारे लिए तबाही है उन (असत्य) बातों के कारण जो तुम बनाते हो।’ -क़ुरआन 21,18
       सो सभी के लिए ज़रूरी है कि इस काल क्रिया को गंभीरतापूर्वक लें और इसे समझकर अपना भरपूर सहयोग दें। मतभेद वाले मुद्दों पर ज़ोर देने के बजाय वेद-क़ुरआन के समान सूत्रों पर मिलकर काम करने से समाज में प्रेम और सहयोग की भावना बढ़ेगी। यह निश्चित है। इसी सराहनीय उद्देश्य के लिए यह पुस्तक लिखी गई है।
    देश की उन्नति और मानव एकता के लिए काम करने वाले बहुत से भाईयों ने हमारे पते पर संपर्क करके यह पुस्तक प्राप्त की और उन्होंने इसे विद्वानों तक पहुंचाया। ऐसे भाईयों में ख़ास तौर पर मास्टर अनवार अहमद साहब, पुराना बाज़ार, हापुड़ उ. प्र., मोबाईल नं. 08909003427 और जनाब शफ़ीक़ अहमद साहब, ज़िला सहारनपुर का नाम लिया जा सकता है। उनके ज़रिए से यह पुस्तक बहुत से आर्य विद्वानों तक पहुंची। विद्वान लेखक के साथ हम मास्टर साहब का भी शुक्रिया अदा करते हैं कि उन्होंने लेखक महोदय के द्वारा एक आर्य भाई कर्म सिंह शास्त्री जी के सवालों के जवाब में सौ पृष्ठ से ज़्यादा लिखे उनके एक विस्तृत जवाबी पत्र को पढ़ लिया, जिसे वह 8 वर्षों से अपनी अलमारी में रखे हुए थे। मास्टर साहब के बहुत आग्रह पर उन्होंने अपने इस शोध-पत्र के चन्द ख़ास बिन्दुओं को एक संक्षिप्त पुस्तक का रूप दे दिया जो कि बहुत सी ग़लतफ़हमियों को दूर करने का सशक्त माध्यम बन रही है। इंटरनेट के कारण इस पुस्तक को देश के साथ साथ विदेशों में भी पढ़ा और सराहा गया है। इस नवीन संस्करण को भी गूगल सर्च के माध्यम से आसानी से तलाश करके पढ़ा जा सकता है। पुस्तक का लिंक मंगवाने और उचित सुझाव देने के लिए भी पाठक ईमेल कर सकते हैं।
    ‘गायत्री मंत्र का रहस्य’ (अभी तक 3 भाग) डाक्टर अनवर जमाल साहब की एक और अद्भुत लेखमाला है, जिसमें उन्होंने इस वेद-मंत्र का ठीक शाब्दिक अनुवाद करने में सफलता पाई है। यही पहला और सही शाब्दिक अनुवाद वह कुंजी है जिससे मंत्र का पाठ करने वाले की वैज्ञानिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास एक साथ होता है और तुरंत से ही होना शुरू हो जाता है। उन्होंने इसमें तर्क सहित गायत्री मंत्र पर उठने वाली सभी गूढ़ आपत्तियों का निराकरण कर दिया है। इंटरनेट पर उनकी यह लेखमाला देखकर हमारा दिल चाहता है कि डाक्टर साहब गायत्री मंत्र पर अपने इस अमूल्य शोध को भी एक पुस्तक का रूप देकर सबके लिए उपलब्ध करा दें ताकि गायत्री मंत्र से लगाव रखने वाले सभी मनुष्यों का भला हो।

डा. अयाज़ अहमद
हिन्दी ब्लॉगर व सम्पादक ‘वन्दे ईश्वरम्’ मासिक
11 सितम्बर 2014
मेन मार्कीट, 117 साबुनग्रान
देवबन्द, उ. प्र.  247554                                                   
email:  ayazdbd@gmail.com                                                                        
blogs:
drayazahmad.blogspot.in
vandeishwaram.blogspot.in

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 http://www.mediafire.com/download/ydp77xzqb10chyd/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition.pdf
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डा. अनवर जमाल की पुस्‍तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्‍या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --
 https://archive.org/stream/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-published-book/swami-dayanand-ji-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition#page/n0/mode/2up
पुस्‍तक युनिकोड में चार पार्ट में इधर भी है --
http://108sawal.blogspot.in/2015/04/swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya.html
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