Thursday, September 15, 2016

दुःख का कारण हमेशा पापाचरण नहीं होता

हक़ीक़त यह है कि दुःख का कारण हमेशा पापाचरण नहीं होता। सुख-दुख का मूल पिछले जन्म का आचरण मानना ग़लत है। योग से रोग ठीक होने का दावा करने वाले बाबा रामदेव के गुरू जी भी काफ़ी वृद्ध हो गए थे। लापता होने से पहले वह भी काफ़ी समय से बीमार चल रहे थे। जब पिछले दिनों स्वयं बाबा रामदेव जी ने आमरण अनशन किया तो चंद ही दिनों में उनकी हालत बिगड़ गई और उनकी जान जाने की नौबत तक आ गई। इस घोर कष्ट के पीछे उनका कोई पूर्व जन्म का पापाचरण नहीं था बल्कि खाना-पीना छोड़ देना था। उचित इलाज के साथ जैसे ही उन्होंने खाना-पीना ्युरू किया। उनका कष्ट दूर हो गया।
    यह तो सामने की बात थी लेकिन कुछ कष्टों का कारण ज़रा दूर होता है। कई बार कष्टों का कारण वंशानुगत   भी होता है।
स्वामी विवेकानन्द के पिता जी को मधुमेह ;क्पंइमजमेद्ध की बीमारी थी। स्वामी जी भी इस बीमारी के शिकार हो गए। उन्हें मधुमेह के अलावा लिवर और गुर्दे की बीमारियों, मलेरिया, माइग्रेन, अनिद्रा और दिल की बीमारियों सहित 31 बीमारियों से जूझना पड़ा था। जिनका कारण मशहूर बांग्ला लेखक ्यंकर ने अपनी पुस्तक ‘द मॉन्क ऐज़ मैन’ में बताया है। उन्होंने लिखा है कि स्वामी विवेकानन्द सन 1887 ई. में अधिक तनाव और भोजन की कमी के कारण काफ़ी बीमार हो गए थे।
(आधार ः हिन्दी दैनिक द सी एक्सप्रेस दिनांक 7 जनवरी 2013 पृ. 2 की रिपोर्ट)

    व्यक्ति जिस समाज में रहता है। उस समाज का सामूहिक आचरण भी व्यक्ति के सुख-दुख का कारण बनता है और विगत समाज के लोग जो कुछ अच्छा या बुरा करके गए हैं, उसका परिणाम भी आज मौजूद लोगों को भोगना पड़ता है। द्वितीय विश्वयुद्ध जिन जापानियों ने लड़ा था। वे आज मौजूद नहीं हैं लेकिन उन पर जो प्रतिबन्ध लगाए गए थे वे आज की जापानी नस्ल पर भी लगे हुए हैं। नागासाक़ी और हिरोशिमा में आज भी विकलांग बच्चे पैदा होते हैं।
    एक व्यक्ति एक विशाल समाज का अंग है। उस समाज का एक अतीत भी है। उस अतीत के अच्छे बुरे कर्मों का अच्छा या बुरा असर आज भी हम पर पड़ रहा है। कई बार परिवर्तन भी कष्ट का कारण बनता है।

विशेषकर तब, जबकि समाज के सदस्यों में मूर्तिपूजा, नशा, जुआ, दहेज और अन्याय का चलन आम हो जाए और उन्हें परिवर्तन के लिए कहा जाए। यदि वे  अपनी परम्पराओं में परिवर्तन करते हैं तो उन्हें अवश्य ही कई तरह के कष्ट का सामना करना पड़ेगा और यदि वे नहीं बदलते तो वे उपदेशक को अवश्य कष्ट देंगे। इस रहस्य को जान लिया जाता तो अपने कष्टों के लिए अपने किसी अज्ञात पूर्वजन्म को मानने की ज़रूरत ही न पड़ती। जिसका ज़िक्र वेदों में कहीं भी नहीं है।


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डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --पुस्तक में108 प्रश्न नंबर ब्रेकिट में दिये गए हैं
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Friday, September 9, 2016

क्या दुखी मनुष्य पिछले जन्म का पापी है?

समाज में आवागमन की ग़लत धारणा आम हो चुकी है। इस कारण लोग दुख उठाने वाले को कितनी बुरी नज़रों से देखते हैं बल्कि अच्छे आदमी ख़ुद अपनी नज़र में भी गिर जाते हैं और अपनी नज़र से गिरे हुए को कौन उठा सकता है ?
    हक़ीक़त यह है कि दुनिया ईश्वर की पाठशाला है। जहां वह मनुष्यों का शिक्षण और प्रशिक्षण विभिन्न माध्यमों से स्वयं कर रहा है। वह मनुष्यों का परीक्षण भी करता है और उन्हें दुनिया में सज़ा और ईनाम भी देता है। परलोक में वह अपने न्याय को पूर्ण करेगा।
    शिक्षण-प्रशिक्षण और परीक्षण में विद्यार्थियों को कष्ट होता ही है। यह स्वाभाविक है। जो विद्यार्थी अच्छे होते हैं। वे नियमों का पालन करके शिक्षा ग्रहण करते हैं और कठिन परीक्षा देते हैं और सफल होते हैं, उन्हें भी कष्ट होता है और जो नियमों का उल्लंघन करते हैं और परीक्षा में फ़ेल हो जाते हैं, उन बुरे विद्यार्थियों को भी कष्ट होता है। दुख और कष्ट सबको होता है लेकिन दोनों के कष्ट का कारण अलग अलग होता है। दुनिया में भी अच्छे और बुरे हरेक आदमी को कष्ट होता है लेकिन आवागमन के कारण अच्छे आदमी को कष्ट उठाता देखकर उसे भी बुरा समझ लिया जाता है।
    दुनिया में एक अच्छा आदमी बुरे लोगों के खि़लाफ़ संघर्ष करता है। बुरे लोग उसे जीवन भर कष्ट देते हैं और फिर उसकी हत्या कर देते हैं या उसे धोखे से ज़हर खिला देते हैं। आवागमन को मानने वाले उसके बारे में यह सोचते हैं कि यह बहुत बुरी मौत मरा है। इसके पूर्व जन्म के पापों का फल ही अब इसके सामने आया है। ज़रूर इसने पिछले जन्म में इन लोगों की हत्या की होगी, जिन्होंने इस जन्म में इसे क़त्ल किया है। लोगों के सामने यह सुधारक होने का ढोंग कर रहा था लेकिन ईश्वर ने न्याय करके इसकी असलियत सबके सामने खोल दी।
(57) क्या लोगों का ऐसा सोचना सही कहलाएगा ?
    स्वामी दयानन्द जी की तरह आदिशंकराचार्य को भी ज़हर देकर मार डालना बताया जाता है। दोनों वैदिक आचार्य आवागमन के प्रचारक थे। बडे़ भयानक कष्ट उठाने के बाद उनके प्राण निकले। स्वामी जी ने कहा है-
    ‘क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है।’ (सत्यार्थप्रकाश, नवम., पृ.165)
(58) ज़रा सोचिए कि अगर दुख का कारण पापाचरण को माना जाए तो स्वामी ने जो दुख भोगे उनका कारण क्या माना जाएगा?

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आवागमन कैसे संभव है? metemspychosis

इन्सान के लिए यह जानना बेहद ज़रूरी है कि मरने के बाद जीवात्मा के साथ क्या होता है? यही बात इन्सान को बुरे कामों से बचकर नेक काम करने की प्रेरणा देती है। प्रत्येक को अपने शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगना है लेकिन किस दशा में? 
वैदिक धर्म में स्वर्ग-नर्क की मान्यता पाई जाती है। बाद में आवगमन की कल्पना प्रचलित की गई। स्वामी जी ने स्वर्ग-नर्क को अलंकार बताया और आवगमन की कल्पना का प्रचार किया। उन्होंने बताया कि मोक्ष प्राप्त आत्मा भी एक निश्चित अवधि तक मुक्ति-सुख भोगने के बाद जन्म लेती है और पापी मनुष्यों की आत्माएं भी कर्मानुसार अलग-अलग योनियों में जन्म लेती हैं।


    आवागमन की कल्पना सिर्फ इस अटकल पर खड़ी है कि सब बच्चे बचपन में एक जैसे नहीं होते। कोई राजसी शान से पलता है और कोई ग़रीबी, भूख और बीमारी का शिकार हो जाता है। ऐसा क्यों होता है? क्या ईश्वर अन्यायी है, जो बिना कारण ही किसी को आराम और किसी को कष्‍ट देता है? क्योंकि ईश्वर न्यायकारी है इसलिए इनके हालात में अन्तर का कारण भी इनके ही कर्मों को होना चाहिए और क्योंकि इनके वर्तमान जन्म में ऐसे कर्म दिखाई नहीं देते तो ज़रुर इस जन्म से पहले कोई जन्म रहा होगा। यह सिर्फ़ एक 

अटकल है हक़ीक़त नहीं। 
एक मनुष्य जब कोई पाप या पुण्य का कर्म करता है तो उसके हरेक कर्म का प्रभाव अलग-अलग पड़ता है और उसके कर्म से प्रभावित होकर दूसरे बहुत से लोग भी पाप पुण्य करते हैं और फिर उनका प्रभाव भी दूसरों पर और भविष्‍य की नस्लों पर पड़ता है। यह सिलसिला प्रलय तक जारी रहेगा। इसलिये प्रलय से पहले किसी मनुष्‍य के कर्म के पूरे प्रभाव का आकलन संभव नहीं है। लोगों को प्रलय से पहले उनके कर्मों का बदला देना सम्भव नहीं है और यदि उन्हें बदला दिया जाता है तो किसी एक के साथ भी न्याय न हो पाएगा।

फिर भी अगर मान लिया जाए कि एक पापी मनुष्‍य को उसके पापों की सज़ा भुगतने के लिए पशु-पक्षी आदि बना दिया जाता है तो जब उसकी सज़ा पूरी हो जायेगी तो उसे किस योनि में जन्म दिया जाएगा? क्योंकि मनुष्‍य योनि तो बड़े पुण्य के फलस्वरूप मिलती है। इसलिए मनुष्‍य योनि में जन्म संभव नहीं है और पशु-पक्षी आदि की योनियों में उसे भेजना भी न्यायोचित नहीं है क्योंकि वह अपने पापकर्मों की पूरी सज़ा भुगत चुका है।

(54) मोक्ष प्राप्त आत्मा के जन्म के विष‍य में भी यही प्रश्न उठता है। एक निश्चित अवधि तक मुक्ति सुख भोगने के बाद मोक्ष प्राप्त आत्मा जन्म लेती है, लेकिन प्रश्न यह है कि किस योनि में लेती है?

(55) पाप उसने किया नहीं था और पुण्य का फल भी उसके पास अब शेष नहीं था। नियमानुसार ईश्वर उसे न तो पशु-पक्षी बना सकता है और न ही मनुष्य। क्या न्यायकारी परमेश्वर जीव को बिना किसी कर्म के पशु-पक्षी या मनुष्‍य योनि में जन्म दे सकता है?

(56) यदि यह मान भी लिया जाये कि दोनों को नई शुरूआत मनुष्‍य योनि से कराई जाएगी तो फिर बचपन में जब वे भूख, प्यास और मौसम आदि के स्वाभाविक कष्ट झेलेंगे तो इन कष्टों के पीछे क्या कारण माना जाएगा?, क्योंकि पाप तो दोनों के ही शून्य हैं।
इस तरह आवागमन की कल्पना से जिस समस्या का समाधान निकालने की कोशिश की गई। वह समस्या तो ज्यों की त्यों रही और वास्तव में मरने के बाद पाप पुण्य का फल जिस तरीक़े से मिलता है, उसे न जानने के कारण जीव को बहुत सा कष्ट उठाना पड़ता है।


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नपुंसक क्यों पैदा होते हैं?

(53) किस कर्म के फल में नपुंसक लोग पैदा होते हैं?,  ( पी डी एफ mediafire और  archive  से  प्राप्त कर सकते हैं)
इस सवाल का जवाब स्वामी जी भी न दे पाए। नपुंसक गर्भ का कारण बताते हुए उन्हें कर्मफल की अवधारणा से हटना पड़ा। वह कहते हैं-
    ‘जो स्त्री के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो स्त्री और पुरूष के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो  पुरूष के शरीर में प्रवेश करता है। और नपुंसक गर्भ की स्थिति समय स्त्री पुरूष के शरीर में सम्बन्ध करके रज वीर्य के बराबर होने से होता है।’ (सत्यार्थ.,पृ.171)
    स्वामी जी ने औरत और मर्द का शरीर मिलने के लिए तो जीव के कर्म को ज़िम्मेदार माना है लेकिन नपुंसक शरीर मिलने के लिए जीव के कर्म के बजाय पति-पत्नी के रज-वीर्य को ज़िम्मेदार माना है। ऐसा मानना कर्मफल की अवधारणा के विपरीत तो है ही, जीव विज्ञान के प्रमाणित तथ्य के विपरीत भी है।
स्वामी जी ने यह भी नहीं बताया है कि किन कर्मों को करने से नर शरीर और किन कामों को करने से नारी शरीर मिलता है। ताकि अगर किसी को वह शरीर लेकर पैदा होना हो तो वह उस तरह के काम कर सके। वैसे आज इसकी ज़रूरत नहीं बची है कि मनोवाँछित लिंग पाने के लिए लोग अगले जन्म का इन्तेज़ार करें।
स्वामी जी के ज़माने के मुक़ाबले आज साइंस और टेक्नोलॉजी इस मक़ाम पर आ गई है कि औरतें और मर्द अपना लिंग अपनी मर्ज़ी के अनुसार बदल रहे हैं। माइकल जैक्सन ने तो अपना लिंग दो बार बदला था। आज बायो-टेक्नोलॉजी के ज़रिए गर्भ में ही बच्चे का लिंग, रूप-रंग और क़द वग़ैरह निश्चित करना संभव है। यह सब पूर्वजन्म के कर्मफल के विचार को निरर्थक सिद्ध करने के लिए काफ़ी है।

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Wednesday, September 7, 2016

आवागमन का त्याग ज़रूरी है देश की सीमाओं की रक्षा के लिए


स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.174 पर बताया है कि जो अत्यन्त रजोगुणी कर्म करते हैं वे मरने के बाद शस्त्रधारी भृत्य अर्थात सैनिक बनकर पैदा होते हैं। यह एक ग़लत बात है। इस तरह की बातें करना देश की सीमाओं को ख़तरे में डालना है। विदेशी हमलावरों से हारने का एक कारण ऐसी मान्यताएं भी थीं।

किसी का सैनिक बनना उसके  पूर्वजन्म के कर्म का फल नहीं होता। हरेक राज्य अपनी अपनी सीमा के क्षेत्रफल और सेना पर ख़र्च करने की क्षमता के अनुसार ही सैनिक तैयार करता है। जिस राज्य को जितने सैनिक चाहिए होते हैं। वह उनकी भर्ती करके उन्हें प्रशिक्षण देता है और वे सैनिक बन जाते हैं। युद्धकाल में ज़्यादा सैनिकों की ज़रूरत पड़ती है तो राज्य ज़्यादा लोगों को भर्ती कर लेता है। जिन दांभिक पुरूषों को स्वामी जी ने तमोगुणी (सत्यार्थ.,पृ.174) माना है, वे भी सेना में भर्ती होकर लड़ते हैं। पायलट और बिजली के जानकार भी मैदान में लड़ते हैं। जिन्हें स्वामी जी ने सत्वगुणी माना है। सत, रज, तम तीनों गुणों के मालिक सेना में इकठ्ठे मिलेंगे और सेना से रिटायर होकर वे सब फिर अलग अलग काम करते हैं। कोई खेती करता है, कोई व्यापार करता है, कोई अध्यापक बन जाता है और कोई डाकू-लुटेरा भी बन जाता है।

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आवागमनः समाज का पतन

हमें जानना चाहिए कि आज वेदपाठ करना पिछले जन्म के कर्मों का फल नहीं है। स्वयं स्वामी जी ने वेद का प्रचार करने के लिए जगह जगह पाठशालाएं खोलीं और आर्य समाज मन्दिर बनवाए। इससे वेदपाठ करने वालों की संख्या में बढ़ोतरी भी हुई। अगर वेदपाठी होना पिछले जन्म के कर्मों का फल होता तो स्वामी जी के प्रयास से वेदपाठियों की संख्या न बढ़ती।
    यही बात बिजली और हवाई जहाज़ बनाने वालों की है। सत्वगुण के कर्म करने से यह योग्यता पैदा हुआ करती तो आज दुनिया में आर्य समाजी सबसे ज़्यादा बिजली और हवाई जहाज़ बना रहे होते। हक़ीक़त इसके खि़लाफ़ है। बिजली और हवाई जहाज़ का सबसे ज़्यादा प्रोडक्शन वे कर रहे हैं जो स्वामी जी के अनुसार तमोगुणी हैं।
    सवारी और युद्ध के विमान आज भी भारत में नहीं बनते। भारतीय इन्हें उन विदेशियों से ख़रीदते हैं जो आवागमन में विश्वास नहीं रखते। योग्यता और कला कौशल का गुण इसी जन्म के अभ्यास से विकसित होता है। इसे पिछले जन्म के कर्म का फल मानना लोगों को ग़लत जानकारी परोसना है। जिसके कारण समाज के लोग आवश्यक पुरूषार्थ नहीं करते और वे दूसरों से पिछड़ कर उनके अधीन हो जाते हैं। ग़लत विचारों को त्यागे बिना राजनैतिक प्रभुत्व पाना और वैज्ञानिक उन्नति करना संभव नहीं है।


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वेदपाठी सन्यासी इन्जीनियर से नीचे और दैत्य के बराबर कैसे?


‘तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गुणाः। नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्विकी गतिः।। (सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.173)
जो तपस्वी, यति, संन्यासी, वेदपाठी, विमान के चलाने वाले, ज्योतिड्ढी और दैत्य अर्थात् देहपोड्ढक मनुष्य होते हैं उनको प्रथम सत्वगुण के कर्म का फल जानो।
(48) वेदपाठी, सन्यासी और तपस्वी को हवाई जहाज़ के पायलट और दैत्य के साथ एक ही श्रेणी में रखना कैसे न्याय हो सकता है?
(49) क्या तपस्वी, यति, सन्यासी और वेदपाठी को पायलट और दैत्य के समकक्ष मानना उनका पदावनति और अपमान नहीं है?
(50) प्रथम सत्वगुण के कर्म करने के बाद भी आदमी मरने के बाद दैत्य बनकर पैदा हुआ तो उसे क्या फ़ायदा हुआ?
    सत्वगुणी कर्म करके दैत्य बनने वाले से अच्छे तो वे अत्यन्त तमोगुणी व्यक्ति रहे जो किसी की हत्या करके या चोरी और व्यभिचार करके पीपल, तुलसी आदि वृक्ष या गाय आदि पशु बन गये और आदर पाते रहे।
प्रथम सत्वगुण से ऊँचा दर्जा मध्यम सत्वगुण का है। मनुस्मृति के अनुसार मध्यम सत्वगुण के कर्म करने वाला विद्युत विद्या का जानकार अर्थात इलैक्ट्रिकल इन्जीनियर बनकर पैदा होता है। इससे ऊँचा दर्जा उत्तम सत्वगुण के कर्म करने वालों को मिलता है। उन्हें विमानादि यानों को बनाने वाले का जन्म मिलता है। (देखिए सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.172)
यहाँ भी तपस्वी, यति, सन्यासी और वेदपाठी हवाई जहाज़ बनाने वाले इन्जीनियर से दो दर्जे नीचे रह गए। इनके बराबर केवल ब्रह्मा जैसे सब वेदों के वेत्ता को रखा गया है। हवाई जहाज़ बनाने वाले इन्जीनियर को तो सब वेदों के ज्ञानी ब्रह्मा जी जैसे विद्वान के बराबर रख दिया और वेदपाठी, सन्यासी, यति और तपस्वियों को उससे दो दर्जे नीचे रखा। उन्हें बिजली मैकेनिक या इन्जीनियर से भी नीचे रखा गया। इससे भी बढ़कर यह कि उन्हें पायलट और दैत्यों की श्रेणी में रख दिया गया।
(51) आवागमन को मानने वाले वेदपाठी सन्यासियों ने जीवन भर की तपस्या के बाद पाया भी तो क्या, एक दैत्य के बराबर दर्जा पाया? 
(52) चोरी, व्यभिचार और हत्या करने वाले पेड़ बन गए तो उनका क्या बिगड़ गया? वे तो बाल-बच्चों को पालने और ब्याहने की चिंता से और मुक्त हो गए। आवागमन की मान्यता से पापियों को फ़ायदा और सत्कर्मियों को नुक्सान होता हुआ साफ़ दिख रहा है। वे पीपल, बरगद और तुलसी आदि वृक्ष बन गए तो कुछ जगहों पर लोग उनकी पूजा करते हुए, उन्हें सम्मान देते हुए भी मिल जाएंगे। 




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